a href="http://hindiblogs.charchaa.org" target="_blank">हिंदी चिट्ठा संकलक

Tuesday, 23 December 2008

दस्तक दे रहा दरवाजे पर

दस्तक दे रहा दरवाजे पर.....


पहले धीमी थी आवाज ;


ध्यान गया न गया...


अपनेआप में मग्न थे हम....


सुनाई दिया न दिया...


सुंदर सपनों के सजीले महल,


मन के खुले आसमान में,


बनानें, मिटाने से कहाँ थी फुरसत?


और सुंदर, अति सुंदर की चाहत में,


हम ने मन का दरवाजा जो बंद किया...


फ़िर सुनाई दी दस्तक...


अब पहले से कुछ तेज आवाज


खलल पड़ रही थी अब हमारी मग्नता में,


शायद आवाज बंद होने का इन्तेजार भी था...


कि अचानक कुछ याद आया....


हाँ!.. आना तो था किसीने;


हर बार की तरह उसे याद था...


उसे याद था अपना कर्तव्य;


भुलक्कड़ तो हम भी नहीं थे खैर!


ज़रा से हडबडा गए तो क्या हुआ?


समझ गए है हम कौन है वो...


सपनों के सजीले महल बनाने में...


हिम्मत और प्रेरणा देने वह आया है....


"नूतन वर्ष' नाम है उसका ....


हम दरवाजा खोलने जा रहे है!


हर बार की तरह मुस्कुराते हुए...


हमारा साथ देने ही वह आया....


गुरु, सखा, आराध्य देव भी है वह...


इस बार अपने पिटारे में देखें,


हम सब के लिए, क्या क्या लेकर आया!




Tuesday, 2 December 2008

आतंकवाद को नेस्त नाबूद कर दो यार

आतंकवाद को नेस्त-नाबूद कर दो यार!

आज आग की लपटों में ही,

घिरे हुए है हम सभी...

एक ही जगह है ऐसी,

कमरा भी एक है.....

बंद है दरवाजें सभी,

काला धुँआ मुंह, आँख,नाक के अन्दर...

घुटतें दम से है परेशान ,फ़िर भी...

बाहर निकलने के लिए,

एक मत... एक राय नहीं है...

चाहतें तो है सभी बाहर निकलना,

पर अफसोस कि...

एक नही अनेक दरवाजों पर ,

कर रहे है प्रहार सभी....

काश कि मिलकर सभी,

एक ही दरवाजे को तोडे...

आपस में दिल कि कडियाँ जोडें...

तो बाहर निकल सकतें है, अब घड़ी!

एक मत और एक जुट होना,

जरुरी है ऐसे में... नहीं तो....

राख के ढेर में बदलते,

देर कितनी लग सकती है भला!

अब भी समय है बच निकलने का ...

हिंदू , मुस्लिम, इसाई वाले दरवाजों को छोड़ो...

हिन्दी, मराठी या तमिल कन्नड़ को भी छोड़ो....

भारतीय बनकर, वैमनस्य का कमजोर दारवाजा...

फ़ौरन तोडो... निकलो बाहर...

आतंकवाद की धधकती आग में,

जल जाने दो आतंकियों को....

तुम एक हो,..एक ही भारतमाता है तुम्हारी,

एकता में है कितनी ताकत,

दुनिया को फ़िर दिखादो...एक बार !

अंग्रेजों को मात दी थी तुमने...

अब वो घड़ी आ गई है कि,

आतंकवाद को नेस्त-नाबूद कर दो यार!

Wednesday, 26 November 2008

ग्रसित है हम हरदम किसी न किसी समस्यासे

तो...ग्रसित है हम हरदम,
किसी न किसी समस्यासे...

एक का समाधान होता है या नहीं होता तो,
दूसरी सामने आ कर खडी हो जाती है...अचानक्?
अचानक ही नहीं; कभी आने की खबर भी देती है,
कभी 'चैलेंज' का रुप धर कर्,
आमंत्रित मेहमान बनकर भी आती है.....

तो..ग्रसित है हम हरदम, किसी न किसी समस्यासे...

दम भरतें है हंमेशा हम, अपनी मजबूती का...
नारिएल की तरह्, उपर से मजबूत लेकिन्...
अंदर से खोखलापन लिए हुए....
जैसे तैसे हल निकाल भी लेते है लेकिन्...
कहां रुकता है उनका आना-जाना,
तो..ग्रसित है हम हरदम, किसी न किसी समस्यासे....

अकेले रहते हुए, समस्या है अकेलापन भी....
भीड में रहने पर चाहतें है अकेलापन.....
दोस्त भी समस्या उपहार में देते है कभी कभी....
धन की अधिकता भी तो समस्या है बडी....
खाली खिस्से तो उससे भी बडी समस्या है...
तो..ग्रसित है हम हरदम, किसी न किसी समस्यासे...

Wednesday, 19 November 2008

सुंदर शहर एक सपना

सुंदर शहर...एक सपना!


सुंदर, स्वच्छ राहों का जाल,
मनमोहक उजाले का मस्त आलम,
शोर भी था ऐसा कि ,लगता था कर्णप्रिय,
न धक्कामुक्की, न हादसों का भय...
घने पेड़ों की मस्त कतारें मनमोहिनी,
एक शहर ऐसा भी था....


चंचल हवाओं का बसेरा था जहाँ,
दम घुटना कहते है किसे,
जानता भी न था कोई जहाँ,
त्यौहार मिलकर मनाते थे लोग,
धर्मं एक था...मानवता नाम का जहाँ,
एक शहर ऐसा भी था....


सभी चीज वस्तुओं का बंटवारा,
सबके लिए समान ही था...
गरीब और अमीर के बीच का फांसला,
न के बराबर ही... उस शहर में था...
दगा-बाजी, मिलावट से सभी थे बेखबर,
एक शहर ऐसा भी था.....


खुली आँख तो पाया...
वह था एक सपनों शहर,
असल में तो सब था उलटा-पुलटा...
बम-धमाके, कर्णभेदी आवाजें,
घुटन, धर्म के नाम पर पाखण्ड....
ऐसा ही है ये शहर....
कहने की अब हिम्मत नहीं है कि....
एक शहर वैसा भी था...


Friday, 31 October 2008

एक ज्योत जलाई हमने भी तुमने भी

मिल कर हमने..एक ज्योत जलाई...

अमावस की अंधेरी-काली रात...
मिल भी नहीं रही थी...
नजरों से नजरें...
थरथराते होंठो की झलक...
सिर्फ़ दिलसे,
महसूस कर रहे थे...
हम भी; तुम भी!
उजाले की .....
एक लकीर की भी...चाहत नहीं थी;
न हमें...न तुम्हें.....

फ़िर भी आंखे तरस रही थी...
अंधेरे को चीरने के लिए...

कुछ होने जा रहा था...
कुछ रुकावटें... पुर -जोश...
आधा अधुरा ही कुछ हुआ जूं ही....
बैचैनी के बढ़ते आलम के बीच...
फंसे हुए थे...हम भी; तुम भी!





फिर जलाई तुमने...
माचिस की एक तीली...
हडबडा गए हम भी अचानक से...
एक कागज़ का तुडा-मुडा टुकड़ा...
सटाया हमने, उस जलती लौ से...
आग की एक लपट ...
फ़िर धुँआ धुँआ !
फ़िर सहम कर संभल गए.....
हम भी; तुम भी!


फ़िर होठों पर हलकी सी मुस्कान लिए...
उस पल...उम्र भर साथ निभाने की...
वो कसमें...तहे दिलसे...
देर तक खाते रहे.....
हम भी, तुम भी!

Friday, 10 October 2008

चला जाऊँगा मैं

S...चला जाऊँगा मैं...S

" सोच क्या रहे हो अब ओल्ड मैन?

अब मरना तो पड़ेगा ही तुम्हें!

बहुत जी लिए अब बाउजी ...

अब इस दुनिया से तो, जाना ही पड़ेगा तुम्हें!

अब जो कुछ है तुम्हारा...

सब हो कर रहेगा हमारा...

साइन कर दो इस स्युसाइड नोट पर ....

इतना तो करना ही पड़ेगा तुम्हें!

चलो, देर मत करो मेरे आका!

ये सामने पड़ी जहर की शीशी....

जल्दी से गटक कर, अभी इसी वक्त...

तत्काल दम तोड़ना है तुम्हें!

तुम्हारी धन-दौलत की चिंता...

अब हमारे हवाले कर दो फ़ौरन!

गोड का नाम लेना ही ठीक है....

अब जाते जाते तुम्हारे लिए! "

" यह तो बहुत अच्छा ही हुआ...

जाने के लिए , बिल्कुल तैयार हूँ मैं!

मेरे जाने का इंतजाम किया चिरंजीवी!

आज तो बहुत ही खुश हूँ मैं!

तुम्हें पढाया , लिखाया, खिलाया...

इन सब का मीठा फल पाया...

खुशी इतनी मिली है मुझे आज तो...

कि बिना जहर पीए ही दम तोड़ दूँ मैं!

..लेकिन अन्तिम इच्छा बाकी है मेरी...

अगर पुरी कर सको तो मेरे प्यारों!

सोने पे सुहागे का काम हो के रहेगा ...

...और ठंडक दिल में लिए जाऊँगा मैं!

जानते ही हो तुम मेरे दिल के टुकडो!

...कि शुगर की बिमारी से ग्रस्त हूँ मैं!

250 ग्राम बटर-स्कोच आइस-क्रीम....

जहर के बदले खिला दो तो...

तुम्हें दुवाएं दे कर... दम तोड़ दूंगा मैं!"

Saturday, 24 May 2008

आंसू बहा रहे है बार बार

आंसू बहा रहे है, बार-बार!


क्या सोचा तुमने कि ...
इस जहाँ से चले गए हम?
एक ऐसी जगह पहुँच गए कि...
वापसी ना होगी, इस जनम?
शक्ल हमारी ना देखोगी कभी...
...और रिश्ते भी हो गए ख़तम?

आमना सामना कैसे होगा भला...
जब राख बन चुके तुम्हारे सनम ?
बिना वक्त गंवाएं तुमने....
थाम भी लिया किसी और का दामन ?
...और मिटा डाला प्यार और दोस्तीका,
हमारा या अपना भरम?


लेकिन जो तुमने समझा था...
...तुम्हारी आंखों का धोखा था यार!
मेहरबानी उस उपरवाले की ...कि,
हम नहीं हुए, हादसे के शिकार!
मौत के मुंह से वापस लाया शायद,
हमें हमारा सच्चा प्यार!

...पर अब दुबारा मर गए हम...
जब कि ख़तम हुआ इंतजार!
दिल को तुम्हारी बेवफाई ने,
आज कर दिया, तार-तार!
अपने जिंदा रहने के ग़म में,
आज आंसू बहा रहे हम; बार-बार!

Friday, 25 April 2008

हमें क्या बना दिया है तुमने

हमें क्या बना दिया है तुमने...

हम जानते है कि हमें ,
दिलसे बाहर कर दिया है तुमने....

एक गहरी सांस की तरह्,
पहले अंदर लेते हुए...
फिर बाहर निकाला है तुमने...


एक नाजुक से पुष्प को,
डाली से तोडकर....
अपने होठो से लगा कर,
किसी और को दे दिया है तुमने...

खैर! अब तक तो है हम,
किसी और के हाथों में सलामत!
कल हो न हो! जानेमन!
कल की फिकर किसे है अब?
यही तो हमें सिखाया है तुमने...


अब सामने आ आ कर,
हसरत भरी निगाहों से...
यूं हमें तकते रहना तुम्हारा,
अब तो हद कर दी है तुमने…


हम अब बदल नहीं सकतें!
लाख कोशिशें कर लेना तुम...
वापसी नामुमकीन है हमारी,
क्यों कि...समझ लो कि,
हमें गया वक्त बना दिया है तुमने...


Wednesday, 9 April 2008

महबूबा थी हमारी मुंह फेर लिया हमने

मेहबूबा थी हमारी...मुंह फेर लिया हमने!

जाना था हमें एक लग्न मंडप में...
रास्ता भूल कर आ पहुंचें इस गली...
…पर ऐसा क्या है चमत्कार कि...
सभी दोस्त भी मौजूद है यहां?
जब रहा न गया हमसे तो...
एक यार से पूछ ही लिया हमने!


“यार शादी कौन कर रहा है?
अपना ही कोई यार है क्या?
तुम सब तो आमंत्रित हो पर...
भूले से मै पहुंच ही गया यहां!
दुल्हा कौन? दुल्हन कौन?"
जानकारी तहे दिल से, लेनी चाही हमने!


यार ने ठंडी आह भरते हुए कहा...
"कैसे बताऊं यार! शब्द नही है पास मेरे..
वही तेरा जिगरी दोस्त 'रौनक'!
दुल्हा बना है आज इस मंडप में...
जानता हूं! तुझे नहीं बुलाया गया यार!
"हमें क्यों नहीं बुलाया?" यह भी पूछा हमने!


जवाब मिला,"दुल्हन को देख ले!
तेरे पांव के नीचे से जमीन सरक लेगी!
आपा खो बैठेगा तू; यकीन है मुझे दोस्त!
ग़लती से शायद तू आ गया इस जगह पर...
अच्छा है कि चला जा वापस अब घडी!"
तो, वापसी के लिए कदम भी बढाएं हमने!


'क्यों देखें हम दुल्हन किसी की?
हमारी मेहबूबा से तो खूबसूरत वो...
किसी हाल में भी, हो नहीं सकती!
ग़लती से हम यहां आ गए है तो क्या?
जिगरी दोस्तने आमंत्रित नहीं किया तो क्या?'
सोचते हुए आगे कदम बढाएं हमने!
…कि अचानक चल पडी ऐसी आंधी कि...
दुल्हन के चहेरे से हट गया घुंघट यारों!
चांदसा मुखड़ा अब था बिलकुल सामने यारों!
वो दुल्हन तो थी मेरे जिगरी यार की! पर...
जीने-मरने की कसमें खाने वाली हाय!
मेहबूबा थी हमारी...बस मुंह फेर लिया हमने...

Monday, 31 March 2008

Chitrakoot ke ghaat par

इश्क का खेल....

इश्क का खेल खेलने का..
मजा ही कुछ और होता है..
होता है महबूबा के सामने एक सनम..
दूसरा मन के दर्पण में होता है!..
जानते है दोनों सनम..
महबूबा नहीं है किसी एक की...
फिर भी प्यार में धोखा खाने का...
मजा ही कुछ और होता है!...

हमने भी किया इश्क..
धोखा भी खाया यारों!..
जानते हो इश्क में आंसू बहाने का..
मजा ही कुछ और होता है! 

चित्रकूट के घाट पर मिले थे हम...
तब घटा छाई हुई थी काली, काली!
क्या याद है तुम्हे वह शाम?
तुम कर रही थी कोई अटखेली!
हमने पिछेसे आकर, हौलेसे...
तुम्हारी आंखों पर रखी थी हथेलियां!
तुम ने हाथ पकड़ कर हमारा...
नाम किसी गैर का ले लिया....
तब गुस्से से तम-तमाते हम,
जाने लगे थे तुम्हे छोड़ कर वहीं...
पर तुमने ऐसे में पकड़ ही लिया,
प्यार से हाथ हमारा वहीं...


मान गए थे तब हम तुम्हें...
और प्यार से लगाया था गले भी!
जान गए थे तुम्हारे दिल का हाल...
पर कुछ न कह सके हम...तब भी!


आज न चुप रहेंगे हम..
कहने को आज न जाने क्यों..
बार बार मन मचल उठता है...
लुका-छिपी का खेल खेलते है सारे...
होता रहता है, चलता रहता है...
दिल मे कोई और…सामने कोई और..
इश्क के खेल में तो सब चलता है!

Monday, 24 March 2008

एक भंवरें की गुन-गुन......

एक भंवरें की गुन-गुन......

ऐसा लगा कि तुम्हे देखा है कहीं...
जगह याद आई नहीं तो क्या हुआ?
तुम्हारी आवाज भी नहीं याद हमे,
अगर ऐसा भी है,तो क्या हुआ?


कई हसीनाएं मिली है हमसे...
हंस-हंस कर उन्हें गले से लगाना,
शौक नया तो नहीं है हमारा,
अगर हमने तुम्हें नहीं पहचाना...
तो इसमें कोई कुसूर नहीं हमारा...
फिर भी तुम्हें दिल दिया है फिरसे...
अगर ऐसा है तो क्या हुआ?

नए खिलने वाले फूल कई है...
उन्हें देख कर..

मचलता है दिल हमारा...
गोल अधखिली पंखुडियों को चुमना,
उनकी गोलाइयों पर फिसलकर्...
उनकी महक सांसों में भरकर...
उन को गुन गुन...मधुर तान सुनाना..

..फिर एक मोड मुड कर..
नए फूल को आगोश में लेना..
वहाँ भी थोडासा ही रुक कर..
...फिर आगे  निकलना,
अगर हम ऐसे तो क्या हुआ?


शिकायत हमसे कैसी ओ जानेमन!
तुम भी तो हो बला की शौकीन,
कई भंवरों की आगोश में खिली...
लिए हो बला की सुनहरी रंगत,

मिठी हो...या हो नमकीन?
भूल कर ही सही..

आज फिर  इसी रास्ते पर...
हम निकल पडे मस्तीसे...
अगर हम ऐसे ही है तो क्या हुआ?

Wednesday, 19 March 2008

क्या आओगे कल फ़िर?

क्या..आओगे कल फिर?

आज हम मिलकर भी तुमसे...
ना मिलने के बराबर ही मिले!
क्यों कि शाम सुरमई हुई ही नही...
और रात का अंधेरा भी फिका रहा!
तो...करते हो हमसे वादा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?चलते है, मजबूरी है हमारी!
चांद अगर छिप गया होता बादलों में...
चलने लगती ठंडी हवा प्यारी,प्यारी...
क्या बिगड़ जाता इस मौसम का भला!
तो...क्या कहते हो भला...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?
कल इन्ही वादियों में होंगे हम!
करते पाओगे हमें, इंतज़ार यहीं...
सुरमई शाम का होगा धुंधलका,
जवां होगी कल तुमसे मिलने की तमन्ना,
तो...हो कर आज हमसे जुदा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

हमें है यकीन 'ओ! हसीन...'
चांद भी जरुर छिपा होगा बादलों में,
घनघोर अंधेरा तुम्हारे गेसूओं की तरह्,
बिखर गया होगा हमारे कांधों पर...
तो...हमारी बाजुओं का फिर सहारा लेने..

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

Friday, 14 March 2008

उसे फ़िर से पाने का इंतजार

...इंतज़ार था मुझे!

सबकुछ तो था पास मेरे,
एक ज़माना ऐसा भी गुज़रा इधरसे....
मस्तानी शामें और....

उनींदी रातें  कट रही थी....
सुनहरें सपनों के संग...
सुबह की रोशनी का ही तो....
इंतज़ार था मुझे!

शाम ढलते ही....
आ जाती थी शबनम,
दबे पांव आ कर...

बैठ जाती थी पहलू में...
कभी उसका हंसता....

मासूमियत भरा चेहरा,
अपने चेहरे से सटाने का ही तो.....

इंतजार था मुझे!

एक रंगीन शाम ऐसी भी आई,
शबनम के गुलाबी...

दमकते होठों की सुर्खियां...
करने ही वाली थी...

मेरी शाम को और रंगीन,
बेचैनियों के खत्म होने का ही तो...

इंतज़ार था मुझे!

शबनम ने अचानक आग बनकर,
अंगारे बरसा कर....

इतना जलाया कि....
मैं जिंदा रहा...

मर कर भी....
क्यों कि....
शबनम को फिर से पाने का ही तो....

इंतज़ार था मुझे!

Sunday, 9 March 2008

बेबस घटाएँ बरसने लगी

बेबस घटाएं बरसने लगी...

एक गीत लिखा था मैने..तेरे लिए,
कुछ इस तरह से, कुछ उस तरह से...

लिखा था उन काली घटाओं पर,
जो तेरे गेसूओं से भी थी काली....
अंधकार ही को 'कलम' बनाया था मैने,
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से....

वही पुष्प गुलाब का साथ था मेरे,
जो तूने दिया था प्यार से मुझे...
जाने क्या कह रहा था 'जालिम'
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से....
मैने प्रणय-गीत लिख डाला तो,
पुष्प क्यों मुरझाने लगा हाय!...
मेरे हाथ से गिर कर...बिखर गया,
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से...

तभी खिलखिलाती,नज़र तू आई...
किसी और की बांहों में बाहें थी तेरी...
मेरी कलम टूटी,

...बेबस घटाएं बरसने लगी,
कुछ इस तरह् से,कुछ उस तरह से....


Tuesday, 4 March 2008

अँधेरा था जुल्फों की घटाओं का

अंधेरा था जुल्फ़ों की घटाओं का!

गुजरता जा रहा था...
जीवन हमारा,यूं ही बे-सबब,
कहीं कोई हरियाली न थी कि...
सुस्ता ही लेते पल दो-पल...
न ही कोई कहानी हमारी कि,
यूं ही कुछ लिख देते बे-सबब!
ऐसे में नज़रे बार बार उठकर,
झुक जाती थी यूं ही बे-सबब...
अंधेरे हो या हो उजाले,
यहां परवाह ही थी किसे?
न कोई तय दिशा ही थी,
बढते जा रहे थे आगे बे-सबब!

एक जगह पर अंधेरा था घना,
रुक गए यारों! ..आगे बढते कदम...
महक सी घुलती जा रही थी सांसो में...
हम समझे...यू ही है, बे-सबब!


हटा अचानक अंधेरा और...
एक दमकता चेहरा था सामने...
अंधेरा था...मगर जुल्फ़ों की घटाओं का,
जो अब था चेहरे पे हमारे....
हम आगे बढे, थाम लिया चेहरा....
अब यूं ही नहीं... बे-सबब!
अब तो मकसद भी था सामने...
गुम हो चुका था अब वो ' बे-सबब!'

Monday, 3 March 2008

मिला..जो हमें चाहिए था!

मिला..जो हमें चाहिए था!

आख़िर हम पहुँच ही गए वहां,
जहाँ हमें पहले ही पहुँच जाना चाहिए था!
इधर-उधर भटकने के आदि जो ठहरे,
आख़िर वही हुआ हमारे साथ यारों!
जो होना ही चाहिए था!

कई फूलों से की... हमने छेड़छाड़!
जो हमें बिलकुल ही रास आई नहीं,
क्या करते मन जो ठहरता नही था कहीं...
भटकता रहता था इधर, उधर....
उसे तो खास ठिकाना चाहिए था!

देशी-विदेशी फूलों से मन को भरना चाहा,
कमी नज़र आई हमें
..यारों!.. हर एक फूल में...
भटकते हुए अब आए...
लाल नाजुक से गुलाब के पास तो,
लगा हमें ऐसा ही तो कुछ चाहिए था!

हमने हाथ में लिया..
खूब टटोला उस फूल को,
सीने से, गले से..
और अपने हर अंग से लगाया...
हमसे लिया उसने बहुत कुछ.. 
बदले में हमें भी उसने...
वह सबकुछ दिया...
जो हमें इसी जीवन-यात्रा में चाहिए था!

सच्चे प्यार की तलाश थी...
इमानदार और नेक दिल की तलाश थी...
एक आम इंसान ही तो थे हम ...
हमें तो आम से साथी की ही तलाश थी...
कहते है खुदा भी मिल जाता है..
जरुरत ढूँढने की होती है....
हमें जीवन-साथी मिल गया..
यारों!जैसा कि हमें चाहिए था!


Monday, 25 February 2008

Thank God ki bearish mein bhige the hum

' थैंक गॉड!' ...कि बारिश में भीगे थे हम!

उस दिन जब बारिश हुई...जम कर!
हम भीग गए..गौड़!..ये कैसा दिन आया!
तुमसे मिलने जब आ ही रहे थे,
कि बरसा ऐसा पानी...मानो प्रलय आ गया...


रुक गए हम एक वृक्ष के तले और...
वहीं हमारा पाँव फिसलता चला गया...
हम चले गए ऐसे फिसलते, फिसलते...
रुके जब कि तुम्हारा आंगन आया!


'थैंक गौड़!' हमारे मुंह से निकला ही था कि,
हमारे कानों से तुम्हारी मीठी आवाज टकराई...
' अब क्या आएगा वह घन-चक्कर!
अच्छा हुआ कि इतनी तेज बारिश आई...'

फिर हमारे दोस्त का ज़ोरदार ठहाका...
' बह निकला होगा बेचारा!..पानी के रेले के साथ....
थैंक गौड़!... कि आज मैं हूँ तुम्हारे साथ!'
हाय!..मेरे हाथों मैं...ये तुम्हारा नाजुक हाथ!

कानोंसे सुना...और कान बंद कर लिए हमने!
..और सजनी की ऊपर-निचे होती साँसों कि आहट!
महसूस की और ... हंमेशा,हंमेशा के लिए...
दिल के दरवाज़े बंद कर लिए हमने!

....फिर एक बार! 'थैंक गौड़' कहकर,
चल पडे अपने रास्ते हम!
अब थम गई थी तेज बारिश,
फिसलने का अब न था कोई ग़म!

Friday, 22 February 2008

शाम की उनफ़ती साँसे...

शाम की उनफ़ती सांसें...
सूरज की लाल आँखे,
गुस्से से तम-तमाता चेहरा,
शाम की उनफ़ती सांसें...
सीने से उठता हुआ धुंआ!
पंछीओं की थरथराहट,

धोंसलों की तरफ रवानगी,
घोंसलों के अंदर दबे,
छुटकुओं की छपछपाहट,
सजनी के गालों पर उतरता,
काजल गहराता गया....
साजन की बांहों के घेरेमें,
अब न वह गरमाहट ही रही...
सूरज की लाल आखों की,
अब परवाह ही किसे रही?
वह तो अपने आप ही,
बंद होती गई,होती गई...
चित्र बना था यहां पर,
धुंधला पर विचित्र सा...
पंछी अब सो गए थे थक कर,
शाम के सीने से निकलता धुंआ...
मिल गया था,हवाओं से जा कर,
न साजन था न सजनी थी...
अब थी काली रजनी यहां पर!
रोज़ ही होता है ऐसा,
नयापन कहां है इसमें?
हां! रात नई होती है,
शाम भी नई होती है,
साजन भी नया होता है,
नई होती है, सजनी भी!

Tuesday, 19 February 2008

जोधा- अकबर,अलग,अलग!

जोधा-अकबर, अलग़,अलग़!
जोधा- अकबर फ़िल्म पर भैया!
राजपूतों ने मचाया, ऐसा बवाल...
जंग छिड़ गई देश भर में यकायक!
पहले राजस्थान को लपेटा,
फ़िर लपेटा हर गाँव और हर चौपाल!

हम सब जगह फिरे...मारे,मारे,
कहीं तो जोधा-अकबर मिले इकट्ठे, par
पर ऐसा न होना था; न हुआ!
सब जगह आडे आया राजपूतों का इतिहास,
सब जगह, जोधा-अकब्रर के टूटे फट्टे!

पर ऐसी हार हम कैसे मानें...
हमारी भी तो आन,बान और शान है भैया!
हम राजपूत नहीं, ना सही...
हम जैसे दर्शकों से ही चलती आई,
अब तक फिल्म वालों की नैया!

हमने भेजे एस.एम्.एस.करोडों में ऐसे...
कहानी को बीच से काट कर दिखादो फिल्म को!
क्या फर्क पड़ता है दर्शकों को...
आधी फिल्म में जोधाबाई नाचे,गाए...
आधी में युध्द करता दिखाओ,अकबर को!

राजपूत भी खुश होंगे कि,
उनका इतिहास बच गया छेडखानी से ...
जोधा चाहे कोई भी हो...
अकबर की तो न बेगम न बहू,
जोधा-अकबर दोनों सलामत,
उन्हें अब क्या लेना देना किसीसे?

Thursday, 14 February 2008

खूब मनाया वैलेंटाइन डे!

खूब मनाया वैलेंटाइन डे!

वैलेंटाइन डे का था,
हमें दस महीनों से इंतजार...
कब आता है ये डे?
हम यारों से पूछ्ते थे बार-बार!


हालाकि चौदा फरवरी तक ही,
काट कर रखा था हमने अपना कैलेन्डर!
सुना था; इसी दिन मिल जाता है,
प्रेमिका नाम का एक सुंदर 'बवंडर!'


ये भी सुन रखा था कि इस दिन,
जरुरत पडती है,लाल गुलाब की!
दूसरे फूलों को धूल चटाने की,
दिली हसरत होती है लाल गुलाब की!



आखिर यह दिन आ ही गया और...
हम घर से निकल पडे सुबह,सुबह!
महंगा लाल गुलाब भी खरीदा हमनें,
और, पहुंच गए एक ऐसी जगह्!

पहली बार मना रहे थे...
यारों!..हम वैलेंटाइन डे..
चाहिए थी हमें एक अदद प्रेमिका...
हमारे ख़्वाब थे बड़े बड़े!..

किसी दोस्त ने कहा था..
करना पड़ता है अच्छा खासा इंतज़ार..
तभी बुल बुल कोई पास आती है...
आँखें तरेरनी पड़ती है बार बार!

रात होने तक करते रहे इंतज़ार...
पर न प्रेमिका, न उसकी मां ही आई!
चौतरफ देखते रह गए और यकायक...
...हमारी ग़लति हमारे ध्यान आई!

जब एक पत्थर से निकली सुंदरी...
और हमारे गुलाब पर हाथ मारा!
समझ गए हम कि कब्रस्तान है यह्,
भागते रहे तबतक कि,घर आ गया हमारा!


बीत गया वैलेंटाइन डे,
सामने हंस रहा है,फटा कैलेन्डर हमारा!
'अब अगले वैलेंटाइन डे की सोचो...
जानेमन!यही ग़लति न हो दोबारा!....

Wednesday, 6 February 2008

Rah Gai Sapanon Ki Nagari Basaten Basaten

रह गई,सपनों की नगरी...बसतें,बसतें!

घुम रहे थे सुंदर उपवन में,
भांति भांति के फूल थे खिलें...
एक कली आ गिरी दामन में,
बिन देखे ही मारे खुशी के,
चुम ली हमनें ... हंसतें,हंसते!
महक समाई ऐसी सांसों मे,
इधर,उधर देखा हमने उपवन में...
पंखों के फड़फड़ाहट की आवाज़,
एक पंछी बच गया था उधर,
सुनहरे जाल में... फंसतें,फंसतें!


घबरा गए हम और उसी क्षण,
कली का ठंडा स्पर्श अनुभव किया...
फेंक दी कली उठाकर दूर कहीं,
देखा!...तो वह थी हाय, नागिन!
बच गए थे हम..उसके डंसतें,डंसतें!

ना-समझ तो थे ही हम,
हर बार की तरह यारों!
इस बार भी खाया धोखा...
इस बार भी रह गई हमारी,
सपनों की नगरी...बसतें,बसतें!

Thursday, 31 January 2008

काली रात करवटें लेती है!

काली रात करवटें लेती है!


हम जानते नहीं थे कि यहां...
बे मौसम बरसात भी होती है!
दिन के धवल उजाले में भी...
काली रात करवटें लेती है!


पंछियों के झुंड भी उडते,उडते...
टकरातें है किसी फौलाद से,
गिर जातें है यहां,वहां...
अकेली एक कली,किसी डाली की,
आग उगालती हुई.. 
हरा-भरा चमन भी फूंक देती है!


महकतें फूल भी सांसों को...
रोकने में होते है माहीर ऐसे!
लूटाते है ऐसी विषैली खुश्बू कि...
मृत्यु जीवन को समेट लेती है!


किसी भी घडी का न कोई भरोसा...
किसी भी व्यक्ति का नहीं है विश्वास!
क्या जड़ और क्या चेतन यारों...
हर चीज़ जब सुख-चैन हर लेती है!

अपनेपन का अहसास जताते...
आगे बढ़तें, कदमों की आहट...
पास आ कर अचानक..
मार देती है ठोकर... 
आगे चल देती है...दिशा बदल लेती है!

Friday, 25 January 2008

फूल के बदले, मिले है कांटे...

फूल के बदले, मिले है कांटे...

गए थे लेने कुछ फूल,
कांटे ही आ गिरे झोलिमें हमारी...
की ऐसी शरारत हमारे यारों ने,
या किस्मत ही ऐसी थी हमारी...

कांटे हम पर गिराने वाले,
खुद भी कांटे ही थे शायद्...
वरना अगर वे फूल होते,
तो ये हालत न होती हमारी...

हम पर हंस रहे हो आज तुम्,
बेशक नाकामियाब है हम...
पर जब कल हम होंगे उंचाईयों पर,
तब देखना आख़िरी हंसी होगी हमारी...

कब कहा हमने कि कांटे,
तुमने गिराएं है हम पर...
तुम्हारी बेरुखी ने गिराएं है..पर,
कांटो से झोली तो भर गई हमारी...

वापस भी कर सकतें है हम,
ये कांटे अमानत है तुम्हारी...
संभाल कर रख लेंगे इन्हे तब तक,
जब तक कि आंखे नम है हमारी...

Tuesday, 22 January 2008

एक घर हो...कहीं भी!

एक घर हो...कहीं भी!


कहते है कि, घरती का...
सिरा होता नही ...कहीं भी!
धूंड़तें रहिए उम्रभर चाहें...
पहुंच जाइए, कहीं भी!


बाबा आदम भी थक गए थे,
धरती का सिरा...धूंड़तें,धूंड़तें!
कोलंबस भी चला था घर धूंड़नें...
पहुंच गया था; अमेरिका...वह भी!


अब तक न मिला है किसीको...
इस धरती का सिरा, सिरफिरो!
तो हल कैसे हो ये समस्या?...
हम ने कुछ सोचा है... अभी,अभी!


धरती का सिरा क्यों न हम...
घर को ही मान ले अब घड़ी!...

क्यों न करें घर की ही तलाश...
मिले घर अच्छासा कोई भी; कही भी!


तो अब बताइए मेरे यारों, दोस्तो!
घर है ?..जो मिल सकता हो कहीं ?
बिकाऊ मिल जाए तो अच्छा ही है...
किराया भी ले लो...चाहे हो जो भी!

Saturday, 19 January 2008

...फिर उसी जगह पर हम!

...फिर उसी जगह पर हम!

यह तो वही मंझिल है,
फिर यहीं आ गए हम....
सफर किया था शुरू यहीं से,
फिर यही कैसे आ पहुंचें हम!


रास्ते टेढे-मेढे...
ऊँचें नीचे...पथरीले...
चलते चलते थक कर,
अब जहाँ रुके हुए हम!


ना समय की मर्यादा,
ना अपनी हालात पे सोचा हमने...
बस! मंझिल की तलाश में,
निकल पड़े थे हम!


...गर होता पता हमें तो...
चलते जाने की जहमत...
क्यों उठाते ख्वामख्वा,
खैर! इतने तो नादां नहीं थे हम!




नहीं! अब हम फिर चलेंगे,
बढ़ते जाएंगे आगे.. फिर-फिरसे॥
उम्मीदें अब भी है कायम ...क्यों कि,
दिल के कमजोर नहीं है हम!








Thursday, 10 January 2008

बस! दोस्त ही रहने दो हमें...

अगर अच्छे नही है...
तो... हम बुरे भी नहीं...
जितना कि तुम समझते हो हमें...
दोस्त है तुम्हारे आखिर ,
काम तो आएंगे तुम्हारी मुसीबत में,
बस! एक मौका तो मिले हमें....

कभी तुमसे आँखें मिलाते है,
राह में चलते चलते...

मतलब समझ सकों तो...
तुमसे प्यार तो नहीं है हमें....
कभी दो बातें कर लेते है....

तो क्या हुआ...
हंस भी लेते है कभी...

तो क्या हुआ
क्यों कि,
तुम अच्छे लगते हो हमें....

दोस्त कई है हमारे तुम जैसे...
सबसे होती है...हाय, हैलो!
अभी यहीं रुकना नहीं है हमें....
तुम भी कुछ सोचो हमारी तरह,
सिर्फ दोस्ती का बढाओगे हाथ,
तो ही मज़ा आएगा तुम्हे और हमें...

Wednesday, 9 January 2008

तुम बेवफा हो...हम नहीं मानते!

तुम बेवफा हो...
...हम नहीं मानते!


तुम्हारी बिल्ली आँखे ,
हमारी काली आंखों से,

क्या छिपा रही है और...
क्या कह रही है ये,
तौबा! हम नहीं जानते....


हमारी काली आँखे भी,
कुछ कह रही है तुमसे...
तलब कर रही है तुमसे,
ये बात ...ओह दिलबर!
तुम क्यों नही मानते ...



कल शाम का वादा ,
हमसे मिलनेका वादा,
भूला दिया तुमने...

क्यों भूला दिया ?
ये हम नहीं जानते...


बेवफा हो तुम,
कह रही है दुनिया...
कह रहे है दोस्त,
दिल मना रहा है जालिम!
पर हम नहीं मानते...


मिलनेका वादा,
हमसे किया था तुमने...
और... किसी और से,
गई थी मिलने तुम....
क्या ये हम नहीं जानते?


वो दोस्त ही था हमारा...
हमने देख लिया था पर,
हमे प्यार है तुमसे...
इसीलिए तो यार मेरे!
हम तुम्हें बेवफा नहीं मानते ...

Friday, 4 January 2008

साथ नही रहा तुम्हारा...

साथ नही रहा तुम्हारा...

कहना था जो कुछ तुमसे,
कह न सके तो क्या हुआ?
न कही बिजली ही गिरी...
न आसमां को ही कुछ हुआ!

हम सुनते रहे, तुम कह्ते रहे,
यूं ही समय गुजरता रहा...

दिन था पहले, फिर रात हुई,

फिर सुबह का इंतजार होता रहा!

इंतजार था कुछ अपनी बातों का,
जो होठों तक आ आ कर रुकती रही...
अनकहें हसीं सपने भी थे गुमसुम ,
सिर्फ दिल ही धड़कता रहा...

आज न तुम हो न हम है वहां...
न जाने होगा कौन उस जगह...
अकेलेपन के साथी है हम दोनों...
पर साथ नहीं है... हम कहाँ, तुम कहाँ...

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