शाम की उनफ़ती सांसें...
सूरज की लाल आँखे,
गुस्से से तम-तमाता चेहरा,
शाम की उनफ़ती सांसें...
सीने से उठता हुआ धुंआ!
पंछीओं की थरथराहट,
धोंसलों की तरफ रवानगी,
घोंसलों के अंदर दबे,
छुटकुओं की छपछपाहट,
सजनी के गालों पर उतरता,
काजल गहराता गया....
साजन की बांहों के घेरेमें,
अब न वह गरमाहट ही रही...
सूरज की लाल आखों की,
अब परवाह ही किसे रही?
वह तो अपने आप ही,
बंद होती गई,होती गई...
चित्र बना था यहां पर,
धुंधला पर विचित्र सा...
पंछी अब सो गए थे थक कर,
शाम के सीने से निकलता धुंआ...
मिल गया था,हवाओं से जा कर,
न साजन था न सजनी थी...
अब थी काली रजनी यहां पर!
रोज़ ही होता है ऐसा,
नयापन कहां है इसमें?
हां! रात नई होती है,
शाम भी नई होती है,
साजन भी नया होता है,
नई होती है, सजनी भी!
सूरज की लाल आँखे,
गुस्से से तम-तमाता चेहरा,
शाम की उनफ़ती सांसें...
सीने से उठता हुआ धुंआ!
पंछीओं की थरथराहट,
धोंसलों की तरफ रवानगी,
घोंसलों के अंदर दबे,
छुटकुओं की छपछपाहट,
सजनी के गालों पर उतरता,
काजल गहराता गया....
साजन की बांहों के घेरेमें,
अब न वह गरमाहट ही रही...
सूरज की लाल आखों की,
अब परवाह ही किसे रही?
वह तो अपने आप ही,
बंद होती गई,होती गई...
चित्र बना था यहां पर,
धुंधला पर विचित्र सा...
पंछी अब सो गए थे थक कर,
शाम के सीने से निकलता धुंआ...
मिल गया था,हवाओं से जा कर,
न साजन था न सजनी थी...
अब थी काली रजनी यहां पर!
रोज़ ही होता है ऐसा,
नयापन कहां है इसमें?
हां! रात नई होती है,
शाम भी नई होती है,
साजन भी नया होता है,
नई होती है, सजनी भी!
2 comments:
अब तो कुछ भी अपना नहीं रहता पलक झपकते
धन्यवाद रश्मी जी!
Post a Comment