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Tuesday, 4 March 2008

अँधेरा था जुल्फों की घटाओं का

अंधेरा था जुल्फ़ों की घटाओं का!

गुजरता जा रहा था...
जीवन हमारा,यूं ही बे-सबब,
कहीं कोई हरियाली न थी कि...
सुस्ता ही लेते पल दो-पल...
न ही कोई कहानी हमारी कि,
यूं ही कुछ लिख देते बे-सबब!
ऐसे में नज़रे बार बार उठकर,
झुक जाती थी यूं ही बे-सबब...
अंधेरे हो या हो उजाले,
यहां परवाह ही थी किसे?
न कोई तय दिशा ही थी,
बढते जा रहे थे आगे बे-सबब!

एक जगह पर अंधेरा था घना,
रुक गए यारों! ..आगे बढते कदम...
महक सी घुलती जा रही थी सांसो में...
हम समझे...यू ही है, बे-सबब!


हटा अचानक अंधेरा और...
एक दमकता चेहरा था सामने...
अंधेरा था...मगर जुल्फ़ों की घटाओं का,
जो अब था चेहरे पे हमारे....
हम आगे बढे, थाम लिया चेहरा....
अब यूं ही नहीं... बे-सबब!
अब तो मकसद भी था सामने...
गुम हो चुका था अब वो ' बे-सबब!'

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