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Monday 31 December 2012

ओ भारत के नेताओं!

ओ भारत के नेताओ!

नया साल आ गया है फिर से...
बार बार आता रहा है!
पर..ये ना समझना आम लोगो!
कि...'कदम बढते जा रहे है आगे...
यकीनन पुराने ही ढर्रे पर...
हर बार, दोहराता आया है नया साल..
नई कहानी पुरानी तर्ज पर...

नई उमंगें, नए फूलों की तरह...
खिलती... मन-भावन खुशबू बिखेरती...
मन में नए संकल्प भरती...
जीवन के दु:खों को,
नेस्त नाबूत करने की..
नई  प्रतिज्ञाएं दोहराती...
फिर से उतर आएगी धरती पर...

पुरानी गलतियाँ अब...
फिर न दोहराई जाएगी...
कोई बेटी अब जबरन...
दामिनी न कहलाएगी...
दुष्टों को...उनके कुकर्मों की सजा...
मृत्यु दंड के रूप में सुनाई जाएगी...
भ्रष्टाचार को मिलेगी तड़ी पार की सजा...
भारत में राम-राज की स्थापना...
नए सिरे से की जाएगी!
अब कोई रावण फिर ना लेगा जनम...
हमारी प्यारी भारत-भूमि पर...

ओ भारत के नेताओं!....
ओ क़ानून के कर्ता-धर्ताओ!
झूठे वचनों से हमें,
भरमाते आ रहे हो बरसों से ...
विश्वास उन वचनों पर...
हम भी आँखे मूंदे...
करते आ रहे बरसों से....
गूंगे-बहरे बने रहते हो...
हाँ!..सुनते हो या मुंह खोलते हो...
सिर्फ अपने स्वार्थ के मुद्दों पर...
तुम तो अब तक न बदले...
पर अब हम बदल गए है...
नए साल को...एक बेदाग़ आइना...
बनाने पर हम भी तुले हुए है!
तुम्हे अब करने पड़ेंगे सारे काम...
वास्तव में जनता के सेवक बन कर...
बुरे कुकर्मों की तुम्हे भी मिलेगी सजा...
अगर रहना चाहो तुम इस जन्म-भूमि पर!

अब हम जाग चुके है...
नया साल...नए ही रूप में सामने होगा...
क्यों कि....
हमें अब भरोसा है सिर्फ हम पर..

Friday 21 December 2012

जीवन है एक 'चलचित्र'!

जीवन है एक 'चलचित्र'!

हर मनुष्य का जीवन...
एक चलचित्र ही तो है!
जन्म के साथ शरू हो कर...
मृत्यु पर समाप्त होता है!
हर चलचित्र की अवधि...
होती है अलग, अलग..
लेखक,निर्देशक और निर्माता...
एक ही होता है हर चलचित्र का..
वही उपरवाला...परमात्मा!

हर मनुष्य अपने चलचित्र में ...
मुख्य भूमिका निभाता है!
सुख,दु:ख के भावों में...
अपने आप को डुबो कर..
तन्मय हो कर...
कहानी के उलटे और सीधे...
रास्तों से गुजरता हुआ...
चलचित्र को...
समाप्ति के दरवाजे तक...
पहुंचा कर ही दम लेता है!

कुछ मनुष्यों के चलचित्र...
सफलता करते है अर्जित...
'हिट' भी हो जाते है...
पुरस्कारों से भी नवाजे जाते है!
प्रमुख भूमिका निभाने वाला कलाकार..
पाता है प्रसिद्धी...युगों युगों तक भी..

और जब कुछ चलचित्र...
'फ्लॉप' हो जाते है...
और कलाकार की...
होती है विवंचना...
नाकामयाबी का झंडा..
जब उसे थमाया जाता है...
कौन सोचता है कि...
वह तो चलचित्र का...
एक कलाकार मात्र है...
लेखक, निर्देशक और निर्माता...
के इशारों पर थिरक रहा है!

कौन सा चलचित्र होगा 'हिट'
और कौन सा जाएगा 'पिट'
इसकी भविष्यवाणी....
की जाती है...
सिर्फ अटकलें लगा कर...
'हिट' चलचित्र का नायक...
अकलमंद और मेहनती ठहराया जाता है...
और फ्लॉप चलचित्र का नायक..
मंदबुद्धि और आलसी माना जाता है!

चलचित्र बनते रहेंगे...
हिट और फ्लॉप होते रहेंगे...
कलाकार मनुष्य जो ठहरें!...                ( फोटो गूगल से साभार)
अपनी हिस्से की भूमिका...
निभाते रहेंगे...निभाते रहेंगे!     



Sunday 16 December 2012

जय हिंदी, जय भारत!

जय हिंदी, जय भारत!


मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है...भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती है, सभी भारत निवासियों की मातृभाषा हिंदी तो हो नहीं सकती!...लेकिन हम भारतीय है, हमारे बीच एकता का होना बहुत जरूरी है..इसके लिए संपर्क सूत्र भी एक ही होना चाहिए......हिंदी का प्रचार और प्रसार सबसे अधिक है!...हिंदी भाषियों की संख्या भी भारत में सर्वाधिक है!..यह हिंदी यू.पी.की, एम.पी. की,राजस्थान की, हरियाणा की भी है!...अब हिंदी फिल्मों के बहुत बड़े योगदान से हिंदी...मराठी, गुजराती, तामिल, बंगाली इत्यादि भाषाओं को भी अपने साथ मिला चुकी है!... इसी वजह से यह एक मजबूत सूत्र है!...तो क्यों न इसी मजबूत सूत्र को थाम कर भारत की एकता बनाएं रखे?....और हिंदी का ज्यादासे ज्यादा प्रयोग बोल-भाषा एवं लेखन कार्य के लिए करें?...इससे विदेशों में भी हम अपनी अलग पहचान बना सकतें है!

Monday 10 December 2012

यादें...बड़े काम की चीज!


यादें...बड़े काम की चीज!

कुछ यादें तो होती है...बड़ी रंगीन...
इन्हें संजोकर रखना है बड़ा कठीन...
दिल के किसी कोने में दबा कर रखना...
कभी कभी फुर्सत में इन्हें दिन का उजाला दिखलाना...
या रात के अँधेरे में चाँद की रोशनी दिखलाना....
कही दूर ना चली जाए इसलिए...
सहलाना..बहलाना..थपथपाना..
दिल से लगा कर प्यार के...
मस्ती भरे दो घूंट पिलाना...

यादे हमारे लिए होती है...
या हम यादों के लिए होते है...
इसका फैसला कर चुकी होती है कुदरत...
यादों के सहारे हमें जिन्दा रखे होती है कुदरत...
यादें उस महल की खँडहर होती है...
जो महल बनने वाला था..पर बना नहीं...
यादें वह उजड़ा गुलशन होती है....
जिसमें बहार आनी थी...पर आई नही...

फिर भी यादें हमें सुख देती है दो घड़ी का...
आस बंधाती है...आने वाले सुनहरे कल का...
जोश जगाती है..नया महल खडा करने का...
सपने जगाती है,फिर नया गुलशन गुलजार करने का...

मत डालो पानी..उलटे घड़े पर...

मत डालो पानी..उलटे घड़े पर...

"यकीनन किस्मत ही खराब है मेरी...
भगवान भी शायद सुनता नहीं है मेरी...
कितनी मेहनत की मैंने....
क्या मिला फल मुझे...
जवानी गुजर गई मेरी....
इस कुँए से पानी निकालकर...
घड़ा भरने की कोशिश कर रहा हूँ मैं...
रस्सी भी अब घीस घीस कर...
हो गई है कमजोर....
हाथ भी मेरे घीस घीस कर...
हो गए है कमजोर..."

"कई आए मेरे बाद भी...
घड़े पानी से भरकर...
अपनी प्यास बुझा कर...
घड़े भरे हुए निर्मल जल से...
उठा कर हँसतें हुए...चले गए अपनी राह...
पर मैं रह गया...
प्यासा का प्यासा...
मेरा घड़ा अब तक ना भर पाया..."

कि भगवान आए अचानक...
एक जटाधारी साधु के भेष में...
और कहकहा लगाया पूर जोश में...
फिर थोड़ा पास आए....बोले...

"ऐ...घड़े वाले वीर पुरुष!
इतने एकाग्र चित्त हो कर...
कौन सा कर रहा है काम?
समय की सुध भी नहीं है तुझे ......
तेरे जीवन की हो चली है शाम!"

बोला...घड़े वाला वीर पुरुष....
" चाहता हूँ...बाबा!
घड़ा भर जाए तो....
पी..लू..थोडासा पानी...
बचा हुआ ले जाऊं अपने घर...
पर ना भरता है घड़ा ...
न मिलता है पानी...
जीवन झोंक दिया मैंने...
करता रहा मेहनत दिन रात...
अब आ गया बुढापा...बीत गई जवानी.."

बोले जटाधारी "सुन ऐ वीर पुरुष...
मेहनत भी करो, तो करो अकलमंदी से...
वरना कुछ हासिल ना होने पर...
शिकायत करते रह जाओगे...
किस्मत से..या फिर भगवान से..."

"अरे वीर पुरुष! ....
जरासा भी ध्यान दिया होता...
अब तक प्यास बुझा कर...
घड़ा पानी से लबालब भर कर...
तू यहाँ से दूर निकल गया होता...
अरे!..जब जब तूं डालता है घड़े में पानी...
आँखे क्या बंद है तेरी?
ऐ मूर्ख!...क्या नहीं जानता तूं?...
उलटे घड़े पर डाल रहा है पानी!
अकल से काम लिया होता तो...
मेहनत तेरी रंग लाती...
ना बुढापा खराब हुआ होता...
ना जवानी तेरी रोती!"

अब सिर उठा कर देखा...
घड़े वाले वीर पुरुष ने...
वह उलटे घड़े पर डाल रहा था पानी...

ऐसा ही होता है...
बहुतों के जीवनी का सार...
मेहनत तो वे बहुत करते है....
लेकिन ध्यान न देनेसे...
मेहनत हो जाती है बेकार...
मेहनत अगर करो..अकलमंदी से करो...
अगर पानी से भरना है खाली घड़ा...
पहले उसे सीधा तो करो!

हिन्दी ही में बात करों!

हिन्दी ही में बात करों!

तुम ‘’हाउ आर यू...’क्यों बोल रहे,जरा वतन को याद करों...
तुम हो भारत-मां की संतान...हिन्दी ही में बात करो!

तुम्हे प्यारी है अपनी माता,उसे ‘मां’ कह कर ही पुकारों...
काहे को कहते हो मदर,उसे ‘मोम’ भी काहे पुकारों...
समझों अपनी जिम्मेदारी....भाषा पर अपनी ‘गर्व’ करो...
तुम हो भारत-मां की संतान....हिन्दी ही में बात करों!

जरा विदेशियों को देखो....उन्हें अपनी भाषा प्यारी....
क्या प्रयोग में लातें है...वे गलती से भाषा हमारी...?
फिर तुम इंगलिशके क्यों दीवाने....थोडीसी ही शर्म करो...
तुम हो भारत-मां की संतान...हिन्दी ही में बात करों!

भाषाएँ अच्छी है सभी...आज करतें है हम स्वीकार....
पर हिन्दी हो सबसे उपर....आओ हम दिलवाएं उसे ये अधिकार....
ये प्रण ले लों..जब बतियाओ...या पढ़-लिखने का काम करो....
तुम हो भारत-मां की संतान....हिन्दी ही में बात करों!

हिन्दी में लिखों तुम कविताएँ,लिखों हिन्दी में लेख-कहानियां....
हिन्दी जैसी सुमधुर भाषा से...परिचित तो हो, सारी दुनिया....
नेक काम तुम करतें हो अनेकों...अब बस नेक ये काम करों...
तुम हो भारत-मां की संतान..हिन्दी ही में बात करों!

कविता आजकल...(हास्य कविता)

कविता आजकल...(हास्य कविता)

कविता आजकल....
नहीं रही प्रॉपर्टी...
जन्म-जात कविओं की....
नहीं रही सगी-सबंधी...
मनन-चिंतन में डूबे,दु:खी आत्माओं की....
नहीं रही लाडली....
मस्तमौला, प्रेमी, रसियाओं की...
नहीं रही शान....
शूर वीरों की गाथा सुनाने वालों की....
नहीं रही प्रणय में असफल...
लैला-मजनू, हीर-रांझों की....
कविता आजकल....
लिख रहा है ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा...
कविता लिखने के लिए...
बिन-जरूरी है जन्म-जात कवि होना!
जेब में हो नोटों के बंडल...
जो कुछ लिखों कविता ही है...
किसी और से लिखवाकर....
अपने नाम पर प्रकाशित करवा लों..
कविता आखिर, कविता ही तो है...

वैसे लिखनी हो गई है बहुत आसान...
छपनी तो हो गई है....
उससे भी बहुत आसान....
ना कहीं प्रेषित करने का झंझट...
ना खेद सहित वापसी का खेद...
‘ओंन लाइन’’ प्रकाशित खुद ही करों...
मित्रों को जबरदस्ती पढ्वावों...
मित्र भी लिखतें है कविता....
वे आपकी ‘लाइक’ करतें है...
आप भी उनकी ‘लाइक’ करों!

जो कुछ आपने लिखा है....
ढाला है, शब्दों की कतार में ....
उसकी किताब भी छपवाओं बेशक...
प्रकाशकों की दुकान खुली है....
आप ही के इंतज़ार में....

तो कविता आजकल...
बहुत सस्ती मिल रही है महंगाई के जमाने में...
खूब करो पठन-पाठन...
कवियित्री ‘अरुणा’ कह रही...क्या हर्ज है हँसने-हंसाने में..


रेगिस्तान की मरुभूमि में..

रेगिस्तान की मरुभूमि में..

अंगारों सी तपती रेत...
सूर्य देवता का प्रचंड प्रकोप...
बदन से लिपटी लाल ओढनी…..
मुंह ढका हुआ...सिर्फ आंखें खुली...
एक कतार में चल पडी...
एक जैसी...दस-बारह पनिहारियां...
नंगे पांवों को तेज तेज बढाती...रेगिस्तान की मरुभूमि में....
नंगे पांवों को तेज तेज बढाती...
तेज धूप को भूलाने की खातिर,..
मधुर गीतों को गाती-गुनगुनाती...
सिर पर 'मोढ'मोतियों वाले...
उस पर पितल की चमकती गगरिया...
जाना है अब भी बहुत दूर्...रेगिस्तान की मरुभूमि में...
जल से ही तो जीवन है...
जीवन को बचाना,कर्तव्य ही तो है..
गंगा,जमना हो...या हो सरस्वती...
जल मिलता हो जहांसे...
जगह वही है,स्वर्ग समान....
आखिर पनिहारियों को मिला...
जलसे भरा भंडार...एक ताल..
सुस्ताई बेचारी कुछ देर वहां..
..जी भर कर जल्-पान किया...
आंचल गिला किया..मुख पर डाला!...
गगरियां भर ली..अपनी अपनी...रेगिस्तान की मरुभूमि में...
शहरवासी नहीं समझतें...
जल की बूंदों की कींमत्...
बहा देते है...बेतहाशा,..
नल खुल्ले छोड,
नालियों में बहाकर..या कारों को नहला कर्...
यही जल कितना है अनमोल..रेगिस्तान  की  मरुभूमि में...
बेचारी अबलाएं आज भी...
जल भरने जाती हर रोज्...
दूर..बहुत दूर्... तपती धूप हो या चलें सर्द हवाएं...
तेज आंधी या तूफान् भी हो राह में...
जल ले कर ही लौट आती.
ममतामयी नारियांरेगिस्तान की मरुभूमि में...
चांद पर पहुंचे है हम..
शनि-मंगल भी है करीब...
विञान ने भी..की बहुतेरी तरक्की..
लेकिन..जल की समस्या,
दूर न हुई हमसे...
कब तक दूर से जल...ला,ला कर..
प्यास बुझाती रहेगी पनिहारियां?....रेगिस्तान की मरुभूमि में...



                   

Thursday 10 May 2012

अलविदा!...हम चल दिए...

....अलविदा!...हम चल दिए...


जाना तो है सभी को एक दिन...
तो हम क्यों न आज ही चल दें...
कहा-सुना- लिखा माफ हो दोस्तों...
आप यहाँ बने रहिए खुशी से...
हमें तो बस इजाजत ही दें....


खाली नहीं है झोली हमारी...
भरी हुई है सुन्दर यादें...
कुछ कमजोर क्षण...
कुछ हास्य के चटपटे व्यंजन..
कुछ जीवन से जुड़े तथ्य...
कुछ मन का सूना पन!
भावनाओं के सागर का खारापन...
शीतल मद-मस्त नदियों की मिठास....
और गैरों से मिला हुआ अपनापन...


सब कुछ बाँध लिया...
विचारों के दृढ़ बंधन में...
लिए जा रहे है संग अपने...
पोटली दिल से लगाए हुए...
पथ तो अब भी है शायद लंबा...
मौसम भी शायद है खुश-मिजाज...
पर हम?...दिल से है कुम्हलाएं हुए....


छोड़ कर जा रहे यादें अपनी...
रचनाओं के फूलों में पिरो कर...
फूल सूख भी जाएंगे तो क्या....
महक बनी रहेगी उम्र भर...


याद आना हंमेशा दोस्तों...
शुभकामनाएं हम दिए जा रहे...
नाम ऊँचा हो आप सबका....
सफलता कदम चुमती रहे,
समय ने अब पुकारा है हमें
...अलविदा!...हम जा रहे!







Friday 4 May 2012

आई है...एक खुश खबर


है!.....कुछ नए-पन की तलाश!




नहीं है कोई नया विचार...
सामने रखने के लिए मेरे पास!
सब कुछ पुराना है..जाना पहचाना है...
जो भी संजोया हुआ है...खास, खास!


रचनाएँ पढ़ रही हूँ...हर रोज...
जैसे बासी कढी को कोई दे रहा उबाल!
बासी खाना खा कर भर रहा है पेट...
तो नया पकवान बनानेका क्यों उठाए जंजाल!


चलिए...अपनी मरजी का हर कोई मालिक...
नुक्ताचीनी करने का हमें क्या है हक?
किसी को ये करो...ये न करो क्यों कहें...
अपनी पहुँच है सिर्फ अपने तक!


फिरभी आशा है कुछ नए फूलों के खिलने की...
जो ताजगी दे...प्रेरणा दें...दे खुशहाल महक!
जैसे कर रहा है विज्ञान तरक्की...
क्या साहित्य नहीं ले सकता सबक?


साहित्यिक किसी और दुनियासे आए नहीं है....
वह रहते..विचरतें है...हमारे बीच,यहीं पर!
रचना का कुछ नया पकवान हरदम...
बनाकर परोसतें है...डटें हुए है यहीं पर!


खुश खबर यही है कि 'परिकल्पना'....
बेताबी से ढूंढ रही है आज उन्हें!
उनकी कला की कद्र होगी यकीनन...
आदर,मान- सम्मान भी प्रदान होगा उन्हें!


वटवृक्ष और परिकल्पना के साथ... आप....इस लिंक द्वारा जुड सकतें है!...

http://urvija.parikalpnaa.com/2012/05/blog-post_03.html

Wednesday 25 April 2012

क्या कहता कबीरा इस पर...


समझ कर भी ना-समझ है हम!

चाहता तो है मन...
बहुत कुछ कहना!
बिती बातों को....
बार बार दोहराना....
किसी से कुछ ले कर...
किसी को कुछ देना!

पर ये हुई सिर्फ....
अपने मन की बात....
किसी के मन में क्या समाया....
मेरी तरह ही...
हर कोई है अज्ञात!
गलतफहमियां अनगिनत....
जिनकी नहीं कोई औकात...
फिर भी उन्हें दिल से निकालना...
है सभी के लिए....बहुत बड़ी बात!

प्रेम रस से है भरपूर...
हर दिल का...हर कोना...
इस बात को समझता है...
हर कोई सयाना...
पर हर किसी पर उसे लुटाना...
चाहेगा क्या कोई दीवाना?

प्रेम की गंगा बहाने की बातें...
किताबों में रह गई है दब कर...
साधु-महात्माओं के....
प्रवचनों में सुनाई देती है अक्सर!
...पर सुन कर अनसुना करने की आदत....
जोर मार रही है हमारे अंदर....

...प्यारे है हमें झगड़े और क्लेश-कलह.....
नफरत और बदले की भावना!
कटु शब्दों की गर्म बौछारें.....
बड़ा ही अच्छा लगता है हमें....
मित्रों का पल भर में शत्रु बन जाना!

कुछ कहने पर....
देखा है हमने ऐसे सिर-फिरों को...
'मै ऐसा ही हूँ!' कहकर मुस्कुरातें हुए ...,
अपने अख्खडपन पर गर्व करतें हुए ,
बड़े ठाठ से इधर-उधर इतरातें हुए ! 
 
क्या कृष्ण....क्या राम...
क्या हर हर भोले...
क्या जय श्री भगवान!
नजर आ रहा है हर कोई....
'नाम' दिन-रात इन्हीका जपता...
क्या कहता कबीरा इस पर....
काश!...कि आज वह ज़िंदा होता!

नोट...यह हमारे समाज की छबी है!...इसे कृपया व्यक्तिगत ना लिया जाए!


उपन्यास के उन्नीसवे पन्ने का लिंक दिया जा रहा है!


http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/mujhekuchhkehnahai/entry/19-%E0%A4%95-%E0%A4%95-%E0%A4%B2-%E0%A4%9C-%E0%A4%AC%E0%A4%A8-%E0%A4%97%E0%A4%88-%E0%A4%95-%E0%A4%B2-%E0%A4%A8-%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8-%E0%A4%AF-%E0%A4%B8

Monday 23 April 2012

खुद अपने आप से है बेखबर...हमलोग!

काश!..अपनी भी खबर लें...हमलोग!

हंमेशा दूसरों की खोज खबर लेने में....
लिप्त रहते है हम लोग....
उसने क्या पहना, क्या खाया..
वह कहाँ गया...कब आया...
उसने ये कहा...उसने ये किया....
सब जानकारी रखतें है हमलोग!

वह बहुत अच्छा है....मिलनसार है....
कमाल का व्यक्तित्व है उसका....
हंमेशा मदद करता आया है वह...और
उसकी प्रशंसा के बड़े बड़े पूल....
खुश हो कर बांध देते है हम लोग....

लेकिन भूल जाते है हरदम....
अपने गुणों को जानना....
अपने प्रशंसनीय कार्यों को पहचानना....
अपनी खुद की पीठ थपथपाना....
ऐसा क्यों करते है हम लोग?

उपहार देते है हम दूसरों को....
दूसरे भी देते है हमें....
लेकिन कभी..अपने आप से खुश हो कर...
अपने आप को सुन्दरसा उपहार....
क्यों नहीं देते हम लोग?

कुदरत ने बनाई है सुन्दर चीजें....
उनमें से मैं भी हूँ एक...
मदद मैंने भी की है बहुतोंकी...कईबार...
मैं भी हूँ भला, साफ़ दिल का और नेक...
...पर अपने पर दो मीठे शब्द.....
..कहाँ खर्च करते है हमलोग!

दूसरों की पसंद- नापसंद की चिंता...
दूसरों की सेहत का भारी ख़याल...
दूसरों की दुनिया बसाने का सपना...
दूसरों को खुश रखने की दिली ख्वाहिश..
क्या सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे है हमलोग?

अपने लिए भी...कुछ कर गुजरना....
बेशक फर्ज है हमारा....
अपने मन को खुश रखना...
अपनी सेहत का ध्यान रखना...
अपने आप से प्यार करना...कर्तव्य है हमारा!
काश!.. इतनी सी बात अगर समझ सकें हमलोग!



Wednesday 14 March 2012

मै था दिल-फैंक सैया...( हास्य-कविता)



मैं  था दिल-फैंक सैंया...(हास्य-कविता)

एक गोलगप्पे...भल्ले-पापडी बेचने वाले युवक ने अपनी आपबीती जब मुझे सुनाई ...तो लगा ‘क्या बात है!...यह कहानी सिर्फ मुझ तक रहे...ऐसा होना ठीक नहीं!...इस कहानी से सबक ले कर तो हजारों मनचलें ‘सैंया’...शरीफ’भैया’में तब्दील हो सकते है!...नेकी और पूछ पूछ!...इस कहानी को कविता का रूप दे कर सुनाने की जरुरत है...तो सुनिए वह कहानी ..... एक हास्य कविता के खिल-खिलाते रूप में...मैं दिल-फैंक सैंया,शरीफ भैया बन गया!....
वह एक मनचला...दिल-फैंक सैंया....
आखिर शरीफ ‘भैया’ बन ही गया...
बनाया एक हसीना ने....कैसे?
हम सुनते गए...वह सुनाता गया!

भल्ले-पापडीयां-टिक्कियाँ-पावभाजी...
वो चटखारे ले ले कर खाती रही...
सब उधार के खाते में लिखवाती रही...
मेरा दिल आ गया था उस पर...
मेरी नजर उसके कंधे पर टंगे पर्स से ...
टकरा कर वापस लौटती रही!
उसका मुस्कुराना ही पे-मेंट था मेरे लिए...
सोचा मेरे लिए प्यार ही होगा ...
उसके भी दिल में...
पर...
उस दिन जब उसने ‘भैया’कह कर पुकारा...
तब भी अपने उपर मैंने लिया नहीं!
सोचा किसी और से कहा होगा भैया...
मेरी शक्ल तो किसी भैया जैसी नहीं!
लेकिन जब फिर जोर दे कर बोली...
’भल्ले तो आज रहने ही दो भैया!...
बीस गोल-गप्पे खा लिए...कम तो नहीं!’
सुन कर मेरे तो होश ही उड़ गए....
तब अपने आप को संभाल पाया नहीं!

दो दिन लग ही गए...फिर संभल ही गया....
जब वो फिर आई मेरी दुकान पर...
मैंने उधारी का बिल थमा ही दिया....
दिमाग से हट चुका था ‘सैंया’!
अब मैं बन चुका था गोल-गप्पे वाला भैया!
सो...ज़रा भी घबराया नहीं...
हसीना के हाथ से टकराया मेरा हाथ...
फिर भी मैं शरमाया नहीं....

अब हसीना पर भी नजर डालिएं जनाब!
मुस्कुराई वो...मेरी आँखों में आँखे डाल कर...
दाहिना हाथ मेरी तरफ बढ़ा कर...
‘आई लव्ह यू, हैंडसम!’ कहा उसने....
हाथ में थमाए हुए बिल पर...
उसने नजर डाली ही नहीं....
अब पूरे होश में था मैं....
नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ कर...
ढिठाई से सीना तान कर... कह दिया...
‘ बहन जी!...बिल चुकता कीजिए जल्दी से...
उधारी का घंधा करना अब मेरे बस में नहीं!
भल्ले-पापडी-गोलगप्पे बेचने वाला...
मैं भैया हूँ....कोई हैंडसम नहीं!’....

...और बिना उधार चुकाएं....
पाँव पटकती हुई...गई वह हसीना !
फिर कभी दिखाई दी नहीं!
पैसे चाहे डूब गए...
घाटा हुआ तो हुआ...
पर मुझ जैसे दिल फैंक आशिक को...
शरीफ ’भैया’ बनाना उसका....
क्या एक भागीरथ काम नहीं?....


( फोटो गूगल से साभार ली गई है!)

Thursday 23 February 2012

मेरे ब्लॉग-पोस्ट की किस्मत खुल गई!







मेरे ब्लॉग-पोस्ट की किस्मत खुल गई......






मैंने लिखा एक ब्लॉग-पोस्ट!

नेताजी की काली करतूते....

वोट मांगने के नए तरीके....

सरकारी खजाने का दुरुपयोग...

झूठे वादे...झूठी कसमों की बाढ....

दबी हंसी मे छिपी....लुच्चाई....

आंसूओं के आवरण में लिपटी...बे-शरमी...

सब शामिल था ब्लॉग-पोस्ट में....

इंतज़ार था तो बस!....एक टिप्पणी का....

टिप्पणियां जब मिल गई...मेरी किस्मत खुल गई !





मैंने लिखा एक ब्लॉग-पोस्ट....

सरकारी अफसरों के काले कारनामें...

रिश्वत-खोरी के नए रूप-रंग...

फाइलों के गुम हो जाने के बारे में...

बिना कारण तबादले होने के बारे में....

पुलिस केस के चलते...

आत्महत्या या एक्सीडैंट के बारे में...

सब कलम बद्ध कर दिया मैंने...

सोच कर कि बस!...एक टिप्पणी जरुर मिलेगी...

कुछ टिप्पणियां मिल गई....मेरी किस्मत खुल गई!



मैंने लिखा एक ब्लॉग-पोस्ट!

व्यंग्य था वेलेंटाइन डे का...

आज के युवा लड़के-लड़कियां...

पाश्चात्य संस्कृति के दीवाने....

दिखावे के प्रेम के परवाने....

उनकी ना समझी को बढ़ावा दे रहे....

उनके माता-पिता...उनके अभिभावक...

खुली आँखों से जो देखा...वही लिखा...

और प्रतिक्रियाएँ जाननी चाही मैंने...

कुछ टिप्पणियाँ मिल गई...मेरी किस्मत खुल गई!



ब्लॉग-पोस्ट की बात करे तो....

टिप्पणियाँ ज्यादा न सही....

....कम तो मिलनी ही चाहिए!

लिखना सार्थक हुआ ऐसा मेरे साथियों...

....ऐसा ब्लॉग लेखक को लगना ही चाहिए!





















Thursday 26 January 2012

ऐसी २६ जनवरी...ऐसा गणतंत्र दिवस ..

...बहुत अच्छा लग रहा है....कम से कम आज के दिन तो देशभक्ति की याद ताजा कर रहे है नेता लोग !...
...आम आदमी की तो बात ही और है...आम आदमी तो देशभक्ति का जोश दिल में लिए हुए हंमेशा से ही खडा है...उसे हरदम लगता है कि 'वो सुबहा, कभी तो आएगी...'

.....वह एक ऐसी सुबह की कल्पना हर रोज करता है ...जब महंगाई घटेगी, रिश्वत खोरी मिटेगी, गरीबी किताबों के पन्नों तक सिमट कर रह जाएगी ,कोर्ट के लंबे समय तक लटकते ...केस जल्दी और सही फैसले का रुख करेंगे, नेता लोग इमानदारी और सच्चाई से राजपाट संभालना शुरू करेंगे...तो आम आदमी देश छबी कुछ कुछ ऐसी ही देखना चाहता है लेकिन उसे आज जो देश की छबी दिखाई दे रही है वह कुछ ऐसी है....

मैंने नवभारत टाइम्स के अपने ब्लॉग में इस छबी को कविता के रूप में कुछ इस प्रकार से उतारा है...आप के लिए यहाँ लिंक प्रस्तुत कर रही हूँ....बताइए यह सही है या गलत!

http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/mujhekuchhkehnahai/entry/26-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%B0-%E0%A4%95-%E0%A4%AE-%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%AF-%E0%A4%A4-%E0%A4%AF-%E0%A4%B9-%E0%A4%B0-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AE-%E0%A4%B0-%E0%A4%A8-%E0%A4%A4-%E0%A4%B2-%E0%A4%97

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