एक घर हो...कहीं भी!
कहते है कि, घरती का...
सिरा होता नही ...कहीं भी!
धूंड़तें रहिए उम्रभर चाहें...
पहुंच जाइए, कहीं भी!
बाबा आदम भी थक गए थे,
धरती का सिरा...धूंड़तें,धूंड़तें!
कोलंबस भी चला था घर धूंड़नें...
पहुंच गया था; अमेरिका...वह भी!
अब तक न मिला है किसीको...
इस धरती का सिरा, सिरफिरो!
तो हल कैसे हो ये समस्या?...
हम ने कुछ सोचा है... अभी,अभी!
धरती का सिरा क्यों न हम...
घर को ही मान ले अब घड़ी!...
क्यों न करें घर की ही तलाश...
मिले घर अच्छासा कोई भी; कही भी!
तो अब बताइए मेरे यारों, दोस्तो!
घर है ?..जो मिल सकता हो कहीं ?
बिकाऊ मिल जाए तो अच्छा ही है...
किराया भी ले लो...चाहे हो जो भी!
कहते है कि, घरती का...
सिरा होता नही ...कहीं भी!
धूंड़तें रहिए उम्रभर चाहें...
पहुंच जाइए, कहीं भी!
बाबा आदम भी थक गए थे,
धरती का सिरा...धूंड़तें,धूंड़तें!
कोलंबस भी चला था घर धूंड़नें...
पहुंच गया था; अमेरिका...वह भी!
अब तक न मिला है किसीको...
इस धरती का सिरा, सिरफिरो!
तो हल कैसे हो ये समस्या?...
हम ने कुछ सोचा है... अभी,अभी!
धरती का सिरा क्यों न हम...
घर को ही मान ले अब घड़ी!...
क्यों न करें घर की ही तलाश...
मिले घर अच्छासा कोई भी; कही भी!
तो अब बताइए मेरे यारों, दोस्तो!
घर है ?..जो मिल सकता हो कहीं ?
बिकाऊ मिल जाए तो अच्छा ही है...
किराया भी ले लो...चाहे हो जो भी!
5 comments:
कल 13/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बढ़िया...
सादर.
बहुत खूब अरुणा जी......
सादर.
चंद दीवारों-छतसे घर नहीं बनते ...चाहिए वह घर जो अहसासों से बना हो !
अरुणा जी ,ढूंढते ...की वर्तनी अशुद्ध है .अपने घर की बात ...उसके एहसास को खूबसूरती से पिरोया है,आपने.
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