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Monday 25 February 2008

Thank God ki bearish mein bhige the hum

' थैंक गॉड!' ...कि बारिश में भीगे थे हम!

उस दिन जब बारिश हुई...जम कर!
हम भीग गए..गौड़!..ये कैसा दिन आया!
तुमसे मिलने जब आ ही रहे थे,
कि बरसा ऐसा पानी...मानो प्रलय आ गया...


रुक गए हम एक वृक्ष के तले और...
वहीं हमारा पाँव फिसलता चला गया...
हम चले गए ऐसे फिसलते, फिसलते...
रुके जब कि तुम्हारा आंगन आया!


'थैंक गौड़!' हमारे मुंह से निकला ही था कि,
हमारे कानों से तुम्हारी मीठी आवाज टकराई...
' अब क्या आएगा वह घन-चक्कर!
अच्छा हुआ कि इतनी तेज बारिश आई...'

फिर हमारे दोस्त का ज़ोरदार ठहाका...
' बह निकला होगा बेचारा!..पानी के रेले के साथ....
थैंक गौड़!... कि आज मैं हूँ तुम्हारे साथ!'
हाय!..मेरे हाथों मैं...ये तुम्हारा नाजुक हाथ!

कानोंसे सुना...और कान बंद कर लिए हमने!
..और सजनी की ऊपर-निचे होती साँसों कि आहट!
महसूस की और ... हंमेशा,हंमेशा के लिए...
दिल के दरवाज़े बंद कर लिए हमने!

....फिर एक बार! 'थैंक गौड़' कहकर,
चल पडे अपने रास्ते हम!
अब थम गई थी तेज बारिश,
फिसलने का अब न था कोई ग़म!

Friday 22 February 2008

शाम की उनफ़ती साँसे...

शाम की उनफ़ती सांसें...
सूरज की लाल आँखे,
गुस्से से तम-तमाता चेहरा,
शाम की उनफ़ती सांसें...
सीने से उठता हुआ धुंआ!
पंछीओं की थरथराहट,

धोंसलों की तरफ रवानगी,
घोंसलों के अंदर दबे,
छुटकुओं की छपछपाहट,
सजनी के गालों पर उतरता,
काजल गहराता गया....
साजन की बांहों के घेरेमें,
अब न वह गरमाहट ही रही...
सूरज की लाल आखों की,
अब परवाह ही किसे रही?
वह तो अपने आप ही,
बंद होती गई,होती गई...
चित्र बना था यहां पर,
धुंधला पर विचित्र सा...
पंछी अब सो गए थे थक कर,
शाम के सीने से निकलता धुंआ...
मिल गया था,हवाओं से जा कर,
न साजन था न सजनी थी...
अब थी काली रजनी यहां पर!
रोज़ ही होता है ऐसा,
नयापन कहां है इसमें?
हां! रात नई होती है,
शाम भी नई होती है,
साजन भी नया होता है,
नई होती है, सजनी भी!

Tuesday 19 February 2008

जोधा- अकबर,अलग,अलग!

जोधा-अकबर, अलग़,अलग़!
जोधा- अकबर फ़िल्म पर भैया!
राजपूतों ने मचाया, ऐसा बवाल...
जंग छिड़ गई देश भर में यकायक!
पहले राजस्थान को लपेटा,
फ़िर लपेटा हर गाँव और हर चौपाल!

हम सब जगह फिरे...मारे,मारे,
कहीं तो जोधा-अकबर मिले इकट्ठे, par
पर ऐसा न होना था; न हुआ!
सब जगह आडे आया राजपूतों का इतिहास,
सब जगह, जोधा-अकब्रर के टूटे फट्टे!

पर ऐसी हार हम कैसे मानें...
हमारी भी तो आन,बान और शान है भैया!
हम राजपूत नहीं, ना सही...
हम जैसे दर्शकों से ही चलती आई,
अब तक फिल्म वालों की नैया!

हमने भेजे एस.एम्.एस.करोडों में ऐसे...
कहानी को बीच से काट कर दिखादो फिल्म को!
क्या फर्क पड़ता है दर्शकों को...
आधी फिल्म में जोधाबाई नाचे,गाए...
आधी में युध्द करता दिखाओ,अकबर को!

राजपूत भी खुश होंगे कि,
उनका इतिहास बच गया छेडखानी से ...
जोधा चाहे कोई भी हो...
अकबर की तो न बेगम न बहू,
जोधा-अकबर दोनों सलामत,
उन्हें अब क्या लेना देना किसीसे?

Thursday 14 February 2008

खूब मनाया वैलेंटाइन डे!

खूब मनाया वैलेंटाइन डे!

वैलेंटाइन डे का था,
हमें दस महीनों से इंतजार...
कब आता है ये डे?
हम यारों से पूछ्ते थे बार-बार!


हालाकि चौदा फरवरी तक ही,
काट कर रखा था हमने अपना कैलेन्डर!
सुना था; इसी दिन मिल जाता है,
प्रेमिका नाम का एक सुंदर 'बवंडर!'


ये भी सुन रखा था कि इस दिन,
जरुरत पडती है,लाल गुलाब की!
दूसरे फूलों को धूल चटाने की,
दिली हसरत होती है लाल गुलाब की!



आखिर यह दिन आ ही गया और...
हम घर से निकल पडे सुबह,सुबह!
महंगा लाल गुलाब भी खरीदा हमनें,
और, पहुंच गए एक ऐसी जगह्!

पहली बार मना रहे थे...
यारों!..हम वैलेंटाइन डे..
चाहिए थी हमें एक अदद प्रेमिका...
हमारे ख़्वाब थे बड़े बड़े!..

किसी दोस्त ने कहा था..
करना पड़ता है अच्छा खासा इंतज़ार..
तभी बुल बुल कोई पास आती है...
आँखें तरेरनी पड़ती है बार बार!

रात होने तक करते रहे इंतज़ार...
पर न प्रेमिका, न उसकी मां ही आई!
चौतरफ देखते रह गए और यकायक...
...हमारी ग़लति हमारे ध्यान आई!

जब एक पत्थर से निकली सुंदरी...
और हमारे गुलाब पर हाथ मारा!
समझ गए हम कि कब्रस्तान है यह्,
भागते रहे तबतक कि,घर आ गया हमारा!


बीत गया वैलेंटाइन डे,
सामने हंस रहा है,फटा कैलेन्डर हमारा!
'अब अगले वैलेंटाइन डे की सोचो...
जानेमन!यही ग़लति न हो दोबारा!....

Wednesday 6 February 2008

Rah Gai Sapanon Ki Nagari Basaten Basaten

रह गई,सपनों की नगरी...बसतें,बसतें!

घुम रहे थे सुंदर उपवन में,
भांति भांति के फूल थे खिलें...
एक कली आ गिरी दामन में,
बिन देखे ही मारे खुशी के,
चुम ली हमनें ... हंसतें,हंसते!
महक समाई ऐसी सांसों मे,
इधर,उधर देखा हमने उपवन में...
पंखों के फड़फड़ाहट की आवाज़,
एक पंछी बच गया था उधर,
सुनहरे जाल में... फंसतें,फंसतें!


घबरा गए हम और उसी क्षण,
कली का ठंडा स्पर्श अनुभव किया...
फेंक दी कली उठाकर दूर कहीं,
देखा!...तो वह थी हाय, नागिन!
बच गए थे हम..उसके डंसतें,डंसतें!

ना-समझ तो थे ही हम,
हर बार की तरह यारों!
इस बार भी खाया धोखा...
इस बार भी रह गई हमारी,
सपनों की नगरी...बसतें,बसतें!