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Monday, 24 March 2008

एक भंवरें की गुन-गुन......

एक भंवरें की गुन-गुन......

ऐसा लगा कि तुम्हे देखा है कहीं...
जगह याद आई नहीं तो क्या हुआ?
तुम्हारी आवाज भी नहीं याद हमे,
अगर ऐसा भी है,तो क्या हुआ?


कई हसीनाएं मिली है हमसे...
हंस-हंस कर उन्हें गले से लगाना,
शौक नया तो नहीं है हमारा,
अगर हमने तुम्हें नहीं पहचाना...
तो इसमें कोई कुसूर नहीं हमारा...
फिर भी तुम्हें दिल दिया है फिरसे...
अगर ऐसा है तो क्या हुआ?

नए खिलने वाले फूल कई है...
उन्हें देख कर..

मचलता है दिल हमारा...
गोल अधखिली पंखुडियों को चुमना,
उनकी गोलाइयों पर फिसलकर्...
उनकी महक सांसों में भरकर...
उन को गुन गुन...मधुर तान सुनाना..

..फिर एक मोड मुड कर..
नए फूल को आगोश में लेना..
वहाँ भी थोडासा ही रुक कर..
...फिर आगे  निकलना,
अगर हम ऐसे तो क्या हुआ?


शिकायत हमसे कैसी ओ जानेमन!
तुम भी तो हो बला की शौकीन,
कई भंवरों की आगोश में खिली...
लिए हो बला की सुनहरी रंगत,

मिठी हो...या हो नमकीन?
भूल कर ही सही..

आज फिर  इसी रास्ते पर...
हम निकल पडे मस्तीसे...
अगर हम ऐसे ही है तो क्या हुआ?

1 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

नए खिलने वाले फूल कई है...
उन्हें देख कर हमारा दिल मचलता है,
गोल अधखिली पंखुडियों को चुमना,
उनकी गोलाइयों पर फिसलकर्...
उनकी महक सांसों में भरकर...
उन पर अपनी जवानी लूटाना...

यह बिल्‍कुल सच है
फिसलते हैं सब
गोलाइयों पर ही
पंखुडि़यों को ही
नोचते कुचलते हैं
और इसी से बना
रहता है उनका भ्रम
मर्द होने का.

पर बाद में डर जाना
नजर फेर कर निकल जाना
नामर्दी का सबसे बड़ा
सबूत है, इन्‍हें पड़ने
नहीं चाहिए क्‍या जूत हैं
और यह जवानी लुटाते नहीं
मचाते चहुं ओर भरपूर लूट हैं.