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Wednesday, 19 March 2008

क्या आओगे कल फ़िर?

क्या..आओगे कल फिर?

आज हम मिलकर भी तुमसे...
ना मिलने के बराबर ही मिले!
क्यों कि शाम सुरमई हुई ही नही...
और रात का अंधेरा भी फिका रहा!
तो...करते हो हमसे वादा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?चलते है, मजबूरी है हमारी!
चांद अगर छिप गया होता बादलों में...
चलने लगती ठंडी हवा प्यारी,प्यारी...
क्या बिगड़ जाता इस मौसम का भला!
तो...क्या कहते हो भला...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?
कल इन्ही वादियों में होंगे हम!
करते पाओगे हमें, इंतज़ार यहीं...
सुरमई शाम का होगा धुंधलका,
जवां होगी कल तुमसे मिलने की तमन्ना,
तो...हो कर आज हमसे जुदा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

हमें है यकीन 'ओ! हसीन...'
चांद भी जरुर छिपा होगा बादलों में,
घनघोर अंधेरा तुम्हारे गेसूओं की तरह्,
बिखर गया होगा हमारे कांधों पर...
तो...हमारी बाजुओं का फिर सहारा लेने..

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

3 comments:

रवि रतलामी said...

बढ़िया लिखा है.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

aanaa to padega hi..aur ek baar hi kyun baar-baar !!kyun?? are chodiye bhi !!

Bianca said...

Hi greaat reading your blog