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Wednesday, 19 November 2008

सुंदर शहर एक सपना

सुंदर शहर...एक सपना!


सुंदर, स्वच्छ राहों का जाल,
मनमोहक उजाले का मस्त आलम,
शोर भी था ऐसा कि ,लगता था कर्णप्रिय,
न धक्कामुक्की, न हादसों का भय...
घने पेड़ों की मस्त कतारें मनमोहिनी,
एक शहर ऐसा भी था....


चंचल हवाओं का बसेरा था जहाँ,
दम घुटना कहते है किसे,
जानता भी न था कोई जहाँ,
त्यौहार मिलकर मनाते थे लोग,
धर्मं एक था...मानवता नाम का जहाँ,
एक शहर ऐसा भी था....


सभी चीज वस्तुओं का बंटवारा,
सबके लिए समान ही था...
गरीब और अमीर के बीच का फांसला,
न के बराबर ही... उस शहर में था...
दगा-बाजी, मिलावट से सभी थे बेखबर,
एक शहर ऐसा भी था.....


खुली आँख तो पाया...
वह था एक सपनों शहर,
असल में तो सब था उलटा-पुलटा...
बम-धमाके, कर्णभेदी आवाजें,
घुटन, धर्म के नाम पर पाखण्ड....
ऐसा ही है ये शहर....
कहने की अब हिम्मत नहीं है कि....
एक शहर वैसा भी था...


9 comments:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अब तो जैसे सपनों के शहर में ही रहना होगा....या इस शहर को बदलना होगा....या फ़िर यूँ-ही कलपना होगा.....

राज भाटिय़ा said...

यह सपनो का शहर नही, मेने जिया है इस जीवन को ओर भारत मै ही आज से बहुत साल पहले , बिलकुल आप की कविता की तरह ही था,हर कोई दुसरे की तकलीफ़ मै भागा भागा आता था, साफ़ हवा, किसी भी नदी के किनारे जा कर अंजली से पानी पी लेते थे, ओर आज, आप की कविता का आखरी हिस्सा ही लगता है,अब तो अपने भी अपने नही होते?
धन्यवाद सुंदर कविता के लिये

अगर आप Word Verification को हटा दे तो लोगो की राय ज्यादा आयेगी, क्योकि इस से टिपण्णी देने मै काफ़ी समय खराब हो जाता है, अगर आप को इसे हटाना नही आता तो मेरे से पुछ सकती है ( यह एक राय है अच्छी लगे तो माने वरन कोई बात नही, बस बुरा ना माने

नीरज मुसाफ़िर said...

शहर तो होते ही हैं सपनों के, लेकिन अब तो गाँव भी सपनों के ही होते जा रहे हैं.

ताऊ रामपुरिया said...

हाँ शहर तो हुबहू ऐसे ही हो गए हैं ! और गाँव के बारे में भी उस हद तो नही पर स्थितिया बहुत अनुकूल नही है ! आपने बड़ी सटीक ढंग से अपनी व्यथा को व्यक्त किया है ! बहुत शुभकामनाएं !

हिन्दीवाणी said...

न धक्कामुक्की, न हादसों का भय...
घने पेड़ों की मस्त कतारें मनमोहिनी,
एक शहर ऐसा भी था...
काश ऐसा शहर हम सब को नसीब हो जाए। बहुत ही अच्छी कविता है।

अभिषेक मिश्र said...

कम-से-कम आपके सपनों में तो है ऐसा शहर. आने वाली पीढी तो शायद सपनों में भी न देख सके की ऐसा भी कोई शहर था.

प्रदीप मानोरिया said...

बहुत सुंदर

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह सुंदर कविता के लिये बधाई स्वीकारें

शोभा said...

खुली आँख तो पाया...
वह था एक सपनों शहर,
असल में तो सब था उलटा-पुलटा...
बम-धमाके, कर्णभेदी आवाजें,
घुटन, धर्म के नाम पर पाखण्ड....
ऐसा ही है ये शहर....
कहने की अब हिम्मत नहीं है कि....
एक शहर वैसा भी था...
यथार्थ का दर्शन कराती एक सुन्दर कविता।