a href="http://hindiblogs.charchaa.org" target="_blank">हिंदी चिट्ठा संकलक

Wednesday 28 January 2009

क्या हूं मैं, क्या नाम है मेरा

क्या हूं मैं...क्या नाम है मेरा?

क्या हूं मैं....क्या नाम है मेरा,
जब भी पूछता है कोई;
कुछ भी जवाब नही आता जुबां पर...
क्यों कि ...बेगाना लगता है हर कोई...


रात तो रात ही होती है,
और दिन भी, रात ही है मेरे लिए....
आते- जाते पल, जाने-पहचाने से मेरे लिए...
शायद वे भी नहीं जानते मेरा नाम.....
तभी तो उनकी तरफ से कोई....
कभी आवाज नहीं आई....


नाम तो कभी मिला था मुझे भी....
नाज भी था कभी उस पर मुझे...
नाम उंचा करने की चाहत भी थी दिलमें...
अपनी स्त्री जाती पर गर्व था मुझे....


कुछ नया कर दिखाने की तमन्ना ....
कुछ खोने और कुछ पाने की चाहत...
नई कल्पनाओं को थी....
सुंदर पंखों की तलाश....
विशाल नभ की तलाश....

पल पल गुजरता गया...
पंखों की तलाश में कुलबुलाती रही....
विशाल नभ में ऊडने की आशा में...
मन ही मन बिलबिलाती रही....
धीरे धीरे नाम से नाता रहा.. नाम मात्र का...
अपना कोई रंग ना होते हुए भी....
मै हर रंग में ढलती रही.....

मेरी जरुरत है हर किसीको...
मुझे चाह्ता भी है हर कोई....
..पर नभ नहीं...इस जमीन पर ही
नजरे नीची किए, बैठी हुई....
मुझे देखना चाहता है हर कोई....

ऐसे में किसे अपना समझू?
पराया ही है यहां हर कोई...

तो....

क्या हूं मैं ....क्या नाम है मेरा...
जब भी पूछता है कोई;
कुछ भी जवाब नहीं आता जुबां पर...
क्यों कि...बेगाना लगता है हर कोई...





Tuesday 13 January 2009

क्यों न और थोडी हो, इंतजार परस्ती!

...तृप्ति का अहसास...

याद आती है,
घनधोर घटाएं मस्ती में मचलती
सर्द हवाओं के झोंकों संग झुमती....
इठलाती, बलखाती और....
बरसने को बेताब सी....

पल पल तरसाती...
मेरे प्यासे मन की प्यास पर्...
गरज कर बेबाक सी हंसती....
यह सोच कर मानो मुस्कराती....
कि.. अब बरसना तो है ही हमें..
क्यों न और थोडी हो,

....इंतजार परस्ती...
गडी हुई नजरें मेरी....
घटाओं के सीने से टकराती...
कुछ थपथपियों का दुलार ....
कुछ पारदर्शी वस्त्र पर टीकती...
मखमली स्पर्श की...

मात्र कल्पना से ही बेकाबू..
उनकी सांसों की डोर में

जा...बार बार अट्कती....
प्यास की चरम सीमा पर पहुंच कर्..
अचानक फिसल कर,
वापस अपनी जगह, आ जमती!


..अब सावन की घटाएं,
यारो!...मेरी नहीं...
किसी और की प्यास बुझा रही है।
बरसने का अंदेशा बेशक था यहां पर्..

पर जाके वे कहीं और बरस रही है!

वही सर्द हवा का झोंका दुश्मन बनकर,
छीन कर्,उडा ले गया काली घटाएं..
मिलन के सपनें, मिटाएं मेरे सारे...
पर्..अब क्या कहें यारो!
घटाओं को मेरे मन से क्या वास्ता।
उन्हें तो प्यास बुझाने में मिल रहा आनंद्...
वे जहाँ बरस रही है...बेशक..
तृप्ती का अहसास वहां भी ले रही है।

Thursday 1 January 2009

हर कदम जलते रहे हंमेशा खुशियों के दीये

हर कदम जलतें रहे...हंमेशा खुशियों के दीये।


हां।...तो हुई थी दस्तक दरवाजे पर,
जाना हमने कि वही है वो....
इंतजार उसीका तो था हमें,
अब यकीनन आ गया है वो....



बस।... हमने लपक कर खोला...
अपने दिल का दरवाजा....
अपने बंद भेजे का दरवाजा...
अपनी बंद आखों का दरवाजा....
अपनी कुंठित सोच का दरवाजा....
अपने सीमित दायरे का दरवाजा....
और कई पुरानी यादों का दरवाजा.....


एक जानी पहचानी महक....
दरवाजे के खुलने पर,.. आई अंदर।
एक धुंधली सी आकृति मन की आंखों से...
देखी हमने..बडी ही थी सुंदर।
उसके थे बारह हाथ...भरे-पूरे..लहरातें..
मानों कोई लहरों से भरा, विशाल समंदर।
एक एक हाथ में एक एक उपहार का पुलिंदा....
आने वाला बडा ही था, पहुंचा हुआ...धुरंदर।


बारह हाथ थे उसके... बारह महीने,
नया साल सामने खडा था उपहार लिये...
जानते थे हम वह बंद लिफाफों में,
लाया है बहुत कुछ... जो है हमारे लिये...
उसमें कुछ खुशियां भी है, गम भी है,
कुछ न बोले हम... बस। उसके स्वागत में,
जलाएं हमने सिर्फ आंखों के दीए...
जनवरी- फरवरी-मार्च्......
हमने बारह उपहार, उसके हाथ से ले लिए...



अब नूतन वर्ष आ कर,
मुड गया है, वापस जाने के लिए...
बारह उपहार जब आत्मसात कर लेंगे हम्,
वह फिर आएगा... नये बारह हाथ में लिए हुए....
मुबारक हो सभी को,
उसके बारह् उपहार जो है आपके लिए...
मनोकामनाएं पूर्ण हो सभी की,
हर कदम जलतें रहे...हंमेशा खुशियों के दिए....