दस्तक दे रहा दरवाजे पर.....
पहले धीमी थी आवाज ;
ध्यान गया न गया...
अपनेआप में मग्न थे हम....
सुनाई दिया न दिया...
सुंदर सपनों के सजीले महल,
मन के खुले आसमान में,
बनानें, मिटाने से कहाँ थी फुरसत?
और सुंदर, अति सुंदर की चाहत में,
हम ने मन का दरवाजा जो बंद किया...
फ़िर सुनाई दी दस्तक...
अब पहले से कुछ तेज आवाज
खलल पड़ रही थी अब हमारी मग्नता में,
शायद आवाज बंद होने का इन्तेजार भी था...
कि अचानक कुछ याद आया....
हाँ!.. आना तो था किसीने;
हर बार की तरह उसे याद था...
उसे याद था अपना कर्तव्य;
भुलक्कड़ तो हम भी नहीं थे खैर!
ज़रा से हडबडा गए तो क्या हुआ?
समझ गए है हम कौन है वो...
सपनों के सजीले महल बनाने में...
हिम्मत और प्रेरणा देने वह आया है....
"नूतन वर्ष' नाम है उसका ....
हम दरवाजा खोलने जा रहे है!
हर बार की तरह मुस्कुराते हुए...
हमारा साथ देने ही वह आया....
गुरु, सखा, आराध्य देव भी है वह...
इस बार अपने पिटारे में देखें,
हम सब के लिए, क्या क्या लेकर आया!