अमावस की अंधेरी-काली रात...
मिल भी नहीं रही थी...
नजरों से नजरें...
थरथराते होंठो की झलक...
सिर्फ़ दिलसे,
महसूस कर रहे थे...
हम भी; तुम भी!
उजाले की .....
एक लकीर की भी...चाहत नहीं थी;
न हमें...न तुम्हें.....
फ़िर भी आंखे तरस रही थी...
अंधेरे को चीरने के लिए...
कुछ होने जा रहा था...
कुछ रुकावटें... पुर -जोश...
आधा अधुरा ही कुछ हुआ जूं ही....
बैचैनी के बढ़ते आलम के बीच...
फंसे हुए थे...हम भी; तुम भी!
फिर जलाई तुमने...
माचिस की एक तीली...
हडबडा गए हम भी अचानक से...
एक कागज़ का तुडा-मुडा टुकड़ा...
सटाया हमने, उस जलती लौ से...
आग की एक लपट ...
फ़िर धुँआ धुँआ !
फ़िर सहम कर संभल गए.....
हम भी; तुम भी!
फ़िर होठों पर हलकी सी मुस्कान लिए...
उस पल...उम्र भर साथ निभाने की...
वो कसमें...तहे दिलसे...
देर तक खाते रहे.....
हम भी, तुम भी!