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Monday 31 March 2008

Chitrakoot ke ghaat par

इश्क का खेल....

इश्क का खेल खेलने का..
मजा ही कुछ और होता है..
होता है महबूबा के सामने एक सनम..
दूसरा मन के दर्पण में होता है!..
जानते है दोनों सनम..
महबूबा नहीं है किसी एक की...
फिर भी प्यार में धोखा खाने का...
मजा ही कुछ और होता है!...

हमने भी किया इश्क..
धोखा भी खाया यारों!..
जानते हो इश्क में आंसू बहाने का..
मजा ही कुछ और होता है! 

चित्रकूट के घाट पर मिले थे हम...
तब घटा छाई हुई थी काली, काली!
क्या याद है तुम्हे वह शाम?
तुम कर रही थी कोई अटखेली!
हमने पिछेसे आकर, हौलेसे...
तुम्हारी आंखों पर रखी थी हथेलियां!
तुम ने हाथ पकड़ कर हमारा...
नाम किसी गैर का ले लिया....
तब गुस्से से तम-तमाते हम,
जाने लगे थे तुम्हे छोड़ कर वहीं...
पर तुमने ऐसे में पकड़ ही लिया,
प्यार से हाथ हमारा वहीं...


मान गए थे तब हम तुम्हें...
और प्यार से लगाया था गले भी!
जान गए थे तुम्हारे दिल का हाल...
पर कुछ न कह सके हम...तब भी!


आज न चुप रहेंगे हम..
कहने को आज न जाने क्यों..
बार बार मन मचल उठता है...
लुका-छिपी का खेल खेलते है सारे...
होता रहता है, चलता रहता है...
दिल मे कोई और…सामने कोई और..
इश्क के खेल में तो सब चलता है!

Monday 24 March 2008

एक भंवरें की गुन-गुन......

एक भंवरें की गुन-गुन......

ऐसा लगा कि तुम्हे देखा है कहीं...
जगह याद आई नहीं तो क्या हुआ?
तुम्हारी आवाज भी नहीं याद हमे,
अगर ऐसा भी है,तो क्या हुआ?


कई हसीनाएं मिली है हमसे...
हंस-हंस कर उन्हें गले से लगाना,
शौक नया तो नहीं है हमारा,
अगर हमने तुम्हें नहीं पहचाना...
तो इसमें कोई कुसूर नहीं हमारा...
फिर भी तुम्हें दिल दिया है फिरसे...
अगर ऐसा है तो क्या हुआ?

नए खिलने वाले फूल कई है...
उन्हें देख कर..

मचलता है दिल हमारा...
गोल अधखिली पंखुडियों को चुमना,
उनकी गोलाइयों पर फिसलकर्...
उनकी महक सांसों में भरकर...
उन को गुन गुन...मधुर तान सुनाना..

..फिर एक मोड मुड कर..
नए फूल को आगोश में लेना..
वहाँ भी थोडासा ही रुक कर..
...फिर आगे  निकलना,
अगर हम ऐसे तो क्या हुआ?


शिकायत हमसे कैसी ओ जानेमन!
तुम भी तो हो बला की शौकीन,
कई भंवरों की आगोश में खिली...
लिए हो बला की सुनहरी रंगत,

मिठी हो...या हो नमकीन?
भूल कर ही सही..

आज फिर  इसी रास्ते पर...
हम निकल पडे मस्तीसे...
अगर हम ऐसे ही है तो क्या हुआ?

Wednesday 19 March 2008

क्या आओगे कल फ़िर?

क्या..आओगे कल फिर?

आज हम मिलकर भी तुमसे...
ना मिलने के बराबर ही मिले!
क्यों कि शाम सुरमई हुई ही नही...
और रात का अंधेरा भी फिका रहा!
तो...करते हो हमसे वादा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?चलते है, मजबूरी है हमारी!
चांद अगर छिप गया होता बादलों में...
चलने लगती ठंडी हवा प्यारी,प्यारी...
क्या बिगड़ जाता इस मौसम का भला!
तो...क्या कहते हो भला...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?
कल इन्ही वादियों में होंगे हम!
करते पाओगे हमें, इंतज़ार यहीं...
सुरमई शाम का होगा धुंधलका,
जवां होगी कल तुमसे मिलने की तमन्ना,
तो...हो कर आज हमसे जुदा...

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

हमें है यकीन 'ओ! हसीन...'
चांद भी जरुर छिपा होगा बादलों में,
घनघोर अंधेरा तुम्हारे गेसूओं की तरह्,
बिखर गया होगा हमारे कांधों पर...
तो...हमारी बाजुओं का फिर सहारा लेने..

क्या आओगे कल फिर इसी जगह्?

Friday 14 March 2008

उसे फ़िर से पाने का इंतजार

...इंतज़ार था मुझे!

सबकुछ तो था पास मेरे,
एक ज़माना ऐसा भी गुज़रा इधरसे....
मस्तानी शामें और....

उनींदी रातें  कट रही थी....
सुनहरें सपनों के संग...
सुबह की रोशनी का ही तो....
इंतज़ार था मुझे!

शाम ढलते ही....
आ जाती थी शबनम,
दबे पांव आ कर...

बैठ जाती थी पहलू में...
कभी उसका हंसता....

मासूमियत भरा चेहरा,
अपने चेहरे से सटाने का ही तो.....

इंतजार था मुझे!

एक रंगीन शाम ऐसी भी आई,
शबनम के गुलाबी...

दमकते होठों की सुर्खियां...
करने ही वाली थी...

मेरी शाम को और रंगीन,
बेचैनियों के खत्म होने का ही तो...

इंतज़ार था मुझे!

शबनम ने अचानक आग बनकर,
अंगारे बरसा कर....

इतना जलाया कि....
मैं जिंदा रहा...

मर कर भी....
क्यों कि....
शबनम को फिर से पाने का ही तो....

इंतज़ार था मुझे!

Sunday 9 March 2008

बेबस घटाएँ बरसने लगी

बेबस घटाएं बरसने लगी...

एक गीत लिखा था मैने..तेरे लिए,
कुछ इस तरह से, कुछ उस तरह से...

लिखा था उन काली घटाओं पर,
जो तेरे गेसूओं से भी थी काली....
अंधकार ही को 'कलम' बनाया था मैने,
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से....

वही पुष्प गुलाब का साथ था मेरे,
जो तूने दिया था प्यार से मुझे...
जाने क्या कह रहा था 'जालिम'
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से....
मैने प्रणय-गीत लिख डाला तो,
पुष्प क्यों मुरझाने लगा हाय!...
मेरे हाथ से गिर कर...बिखर गया,
कुछ इस तरह से,कुछ उस तरह से...

तभी खिलखिलाती,नज़र तू आई...
किसी और की बांहों में बाहें थी तेरी...
मेरी कलम टूटी,

...बेबस घटाएं बरसने लगी,
कुछ इस तरह् से,कुछ उस तरह से....


Tuesday 4 March 2008

अँधेरा था जुल्फों की घटाओं का

अंधेरा था जुल्फ़ों की घटाओं का!

गुजरता जा रहा था...
जीवन हमारा,यूं ही बे-सबब,
कहीं कोई हरियाली न थी कि...
सुस्ता ही लेते पल दो-पल...
न ही कोई कहानी हमारी कि,
यूं ही कुछ लिख देते बे-सबब!
ऐसे में नज़रे बार बार उठकर,
झुक जाती थी यूं ही बे-सबब...
अंधेरे हो या हो उजाले,
यहां परवाह ही थी किसे?
न कोई तय दिशा ही थी,
बढते जा रहे थे आगे बे-सबब!

एक जगह पर अंधेरा था घना,
रुक गए यारों! ..आगे बढते कदम...
महक सी घुलती जा रही थी सांसो में...
हम समझे...यू ही है, बे-सबब!


हटा अचानक अंधेरा और...
एक दमकता चेहरा था सामने...
अंधेरा था...मगर जुल्फ़ों की घटाओं का,
जो अब था चेहरे पे हमारे....
हम आगे बढे, थाम लिया चेहरा....
अब यूं ही नहीं... बे-सबब!
अब तो मकसद भी था सामने...
गुम हो चुका था अब वो ' बे-सबब!'

Monday 3 March 2008

मिला..जो हमें चाहिए था!

मिला..जो हमें चाहिए था!

आख़िर हम पहुँच ही गए वहां,
जहाँ हमें पहले ही पहुँच जाना चाहिए था!
इधर-उधर भटकने के आदि जो ठहरे,
आख़िर वही हुआ हमारे साथ यारों!
जो होना ही चाहिए था!

कई फूलों से की... हमने छेड़छाड़!
जो हमें बिलकुल ही रास आई नहीं,
क्या करते मन जो ठहरता नही था कहीं...
भटकता रहता था इधर, उधर....
उसे तो खास ठिकाना चाहिए था!

देशी-विदेशी फूलों से मन को भरना चाहा,
कमी नज़र आई हमें
..यारों!.. हर एक फूल में...
भटकते हुए अब आए...
लाल नाजुक से गुलाब के पास तो,
लगा हमें ऐसा ही तो कुछ चाहिए था!

हमने हाथ में लिया..
खूब टटोला उस फूल को,
सीने से, गले से..
और अपने हर अंग से लगाया...
हमसे लिया उसने बहुत कुछ.. 
बदले में हमें भी उसने...
वह सबकुछ दिया...
जो हमें इसी जीवन-यात्रा में चाहिए था!

सच्चे प्यार की तलाश थी...
इमानदार और नेक दिल की तलाश थी...
एक आम इंसान ही तो थे हम ...
हमें तो आम से साथी की ही तलाश थी...
कहते है खुदा भी मिल जाता है..
जरुरत ढूँढने की होती है....
हमें जीवन-साथी मिल गया..
यारों!जैसा कि हमें चाहिए था!